October 2, 2024

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर

हर शनिवार, 12 फरवरी 2022

बहस से हटकर गरीबी की वास्तविकता जानें!

-डॉ. दीपक पाचपोर

केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गरीबी को लेकर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी पर तंज कसा है। कभी राहुल ने कहा था कि “गरीबी मानसिक स्थिति का विषय है” तब केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी और गरीब की परिभाषा जो केन्द्रीय योजना आयोग ने तय की थी, उसे लेकर विवाद हुआ था और उसी से निकलकर यह व्यंग्य उपजा है। दरअसल हमारे देश में अब गरीबी परिभाषाओं, आकलन और आंकड़ों का विमर्श होकर रह गया है। सरकारें अपने हिसाब से तथ्यों को पेश करती हैं, योजना आयोग गरीब व्यक्ति की अवास्तविक परिभाषाएं गढ़ती हैं, गरीबी हटाने के खोखले नारे बनाये जाते हैं और इस क्षेत्र में अपनी सरकारों की उपलब्धियां बतलाने के नाम पर फर्जी आंकड़े पेश किये जाते हैं। गरीबी यथार्थ रूप में अपनी जगह पर खड़ी है- शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में। आजादी मिलने के 75 साल बाद भी हमारा नागरिक अगर कोरोनाजन्य दो वर्ष का संकट भी नहीं झेल पाया है तो महसूस हो जाना चाहिये कि गरीबी हटाने और आर्थिक रूप से सुदृढ़ नागरिक बनाने की दिशा में और भी ठोस पहल करनी होगी। इस मामले में जुमले एवं झूठे नारे हमें कहीं नहीं ले जाएंगे क्योंकि निर्धनता दृश्यमान होती है जिसे किसी विदेशी मेहमान के आगमन पर दीवारें खड़ी करके नहीं छिपाया जा सकता।
हमारी राजनीति के केन्द्र में गरीबी का विमर्श हमेशा से ही प्रधानता से रहा है। दो सदियों की औपनिवेशिक गुलामी से जर्जर भारत को फिर से समृद्ध बनाने के लिये गांधी जी बैरिस्टर से अधनंगे फकीर बन गये तो उनके वारिस जवाहरलाल नेहरू ने आजाद भारत का उनका पहला टास्क गरीबी हटाने का बतलाते हुए उस दिशा में सघन काम किया। उन्होंने औद्योगिक रूप से आत्मनिर्भर भारत बनाया तो लालबहादुर शास्त्री ने कृषि के मामले में हमें अपना पेट खुद भरना सिखलाया। इंदिरा गांधी हरित क्रांति लेकर आईं तो 1971 का चुनाव ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर लड़ा; फिर भी हर पेट में अन्न का सपना आज भी अपूर्ण है। अब लोगों ने न केवल मान लिया है कि गरीब रहेगा और गरीबी भी, बल्कि नया वैश्विक आर्थिक मॉडल तो गरीबों के कांधों पर ही खड़ा है, वैसे ही जिस प्रकार विदेशी शासक गरीबी बनाये रखने में ही अपना भला समझते थे।
पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री रहते भारत ने नये वैश्विक आर्थिक मॉडल को अपनाया जिसने बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन किया- इस आशंका के विपरित कि नयी तकनीकों से सज्जित होने के कारण नये उद्योग एवं व्यवसाय हाथ से काम करने वाले श्रम को खा जायेंगे। पहले दौर में तो वैसा नहीं हुआ परन्तु जैसे-जैसे नयी अर्थव्यवस्था का फैलाव बाद के शासनकाल में होता गया और उसका असर देश भर के उद्योग-व्यवसायों पर हुआ, निश्चित ही यह आशंका यथार्थ होती गयी। बाद की अटल बिहारी वाजपेयी ने इस यात्रा को जारी रखा, बावजूद इसके कि उनकी पार्टी विपक्ष में रहते हुए राव सरकार एवं नयी प्रणाली की घनघोर विरोधी रही थी। प्रतिपक्ष के रूप में भाजपा चाहे स्वदेशी की अवधारणा पर बल देती रही और बेरोजगारी व गरीबी को हटाने का इसे रामबाण नुस्खा मानती थी, लेकिन उसके नेतृत्व में सरकार के बनने तक दुनिया के साथ भारत इतना पश्चिमोन्मुख हो चुका था कि लघु, कुटीर, दस्तकारी, हस्तशिल्प, ग्रामोद्योग सब तबाह हो चुके थे। कई दलों से बनी वाजपेयी सरकार ने कोई खतरा मोल नहीं लिया और बड़े एवं शहर केन्द्रित उद्योगों के बल पर ही गरीबी पर नियंत्रण पाने की कोशिशें कीं। तब तक वैश्विक अर्थप्रणाली का विकास जारी था, इसलिये उसका लाभ भारत को मिलता रहा। सोने में सुहागे के रूप में इस बीच भारत में सेवा सेक्टर का भी जबर्दस्त विकास हुआ जिसमें मध्य वर्ग, निम्न मध्य वर्ग एवं निम्न वर्ग का अल्प साक्षर एवं सामान्य शिक्षित भी नौकरियां पा गया। इस दौरान हमारे ग्राम आधारित एवं छोटे उद्योग-धंधे उबर नहीं पाये इसलिये ग्रामीण गरीबी तो बरकरार ही रही, शहरी गरीबी पर थोड़ा अंकुश लगा। वैसे इसके दुष्परिणामों के रूप में पलायन एवं बेतरतीब शहरीकरण हमें देखने को मिला। सर्विस सेक्टर में गुंजाइशें तो अच्छी थीं लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव में वह ठहराव के बिन्दु पर एक दशक में ही पहुंच गया। शहरी एवं ग्रामीण गरीबी दूर करने के लाख दावों के बाद भी ‘शाइनिंग इंडिया’ की चमक धूमिल पड़ गयी और वाजपेयी सरकार विदा हो गयी। नरसिंह राव सरकार के समय वित्त मंत्री और उसके पूर्व योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह 2004 से 2014 तक दो बार प्रधानमंत्री बने। उन्होंने उद्योगों एवं व्यवसायों को पुनर्जीवित करने की कोशिश की, साथ ही कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुरुप कई ऐसे कार्यक्रम लागू किये जिसके कारण लोगों को प्रत्यक्ष लाभ पहुंचाया गया। मनरेगा, सब्सिडी आधारित योजनाएं, एमएसपी, सहकारिता सेक्टर आदि को बढ़ावा देने के प्रयास हुए। 2008 में आई भीषण आर्थिक मंदी ने दुनिया के साथ ही देश को भी अपनी चपेट में ले लिया, परन्तु भारत उन गिने चुने राष्ट्रों में रहा जहां दो अंकीय विकास दर बनी रही। इसका कारण था लोगों की जेबों में पैसा सतत पहुंचता रहा जो बाजारों में खर्च होता रहा।
पांच वर्ष मोदी ने अनेक ऐसे फैसले लिये जो असफल साबित हुए और उनसे देश की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ी। नोटबन्दी, जीएसटी, जन धन योजना, अनियोजित निजीकरण आदि ऐसी ही योजनाएं हैं। दरअसल मोदी सरकार के पास योग्य अर्थशास्त्रियों का हमेशा अभाव रहा। दूसरे, काबिल लोगों से मोदी हमेशा परहेज करते रहे। जिस महंगे प्याज के कारण कभी सरकारें चली जाती थीं, उसी पर सवाल उठाने पर मौजूदा वित्त मंत्री यह कहकर फारिग हो जाती हैं कि “मैं प्याज नहीं खाती, जी!” और पिछले कार्यकाल के एफएम अरूण जेटली साफ कहते थे कि “मध्य वर्ग अपनी फिक्र स्वयं कर ले!” सम्भवतः ऐसा मोदी मनमानी करने की चाह में करते हों परन्तु यह समग्र सरकार की गहरी असंवेदनशीलता ही कहलायेगी। वैसे भी उनका फोकस भावनात्मक मुद्दों पर ज्यादा है लेकिन न उनसे रोजगार सृजित हो सकते हैं और न ही गरीबी मिटाई जा सकती है। उस भाजपा सरकार के पास अब रोजगार के आंकड़े ही नहीं है, जिसने हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार देने का दावा किया था। केन्द्र एवं राज्य सरकारों के पास असंख्य खाली पद पड़े हैं लेकिन उन पर भर्तियां नहीं होतीं। महामारी के प्रकोप से उद्योग-धंधों एवं व्यवसायों में काम घट गये हैं। नतीजतन, देश के करीब 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा में शामिल हो गये हैं। पिछले दो वर्षों में 4 करोड़ लोगों ने रोजगार खोये और करीब 80 करोड़ लोगों की आय घटी है। हमारा एक बड़ा हिस्सा आज शासकीय मासिक राशन पर जीवित है। ज़रूरी वस्तुओं की घटी आपूर्ति, पेट्रोल-डीज़ल एवं खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों, कोरोना के चलते घटी आय और नौकरियां खोने से गरीबी और बढ़ रही है। रोजगार का सीधा सम्बन्ध गरीबी से है इसलिये जब तक शहरी एवं ग्रामीण भारत में सबको रोजगार नहीं मिलता, गरीबी हटाने का लक्ष्य अधूरा ही रहेगा। पूर्ववर्ती सरकारों को कोसने, गरीबी की नयी परिभाषाएं गढ़ने, विपक्ष पर ताने मारकर आपको आत्मसंतुष्टि मिल सकती है, मेजों थपथपाई जा सकती हैं, लेकिन मुल्क की गरीबी वैसी ही रहेगी और समाज का व्यक्ति वहीं का वहीं निर्धन रूप में खड़ा मिलेगा। यह वक्त तंज कसने का नहीं बल्कि सकारात्मक व ठोस पहल करने का है।

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383

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