सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर
फिल्मों के जरिये गांधी की महानता को जानना
-डॉ. दीपक पाचपोर
किसी की महानता को जानने के कई माध्यम हो सकते हैं- मसलन, ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आना या रहना, प्रत्यक्ष या प्रसार माध्यम से उन्हें देखना या सुनना, किताबों या शैक्षिक पाठ्यक्रमों में पढ़ना आदि। फिल्मों को देखकर यदि कोई किसी को जानता है तो इसमें भी कोई बेजा बात नहीं। ऑर्लियांस की लड़ाई जीतकर फ्रांस पर अधिपत्य करने के ग्रेट ब्रिटेन के मंसूबे पर पानी फेरने वाली 16 वर्षीय किसान योद्धा लड़की जोन ऑफ आर्क से लेकर हिटलर के चरम काल में अपना सब कुछ दांव पर लगाकर यहूदियों को यातना शिविरों में जाने से बचाने वाले जर्मन कारोबारी ऑस्कर शिंडलर जैसे हजारों महान लोगों से दुनिया का इतिहास भरा हुआ है। इन्हें भी कई लोगों ने सम्भवतः फिल्मों से सर्वाधिक जाना है। सवाल तो तब खड़ा होता है जब आप उस व्यक्ति को सिनेमा के पर्दे के जरिये जानते हैं जो आपके जन्म के दो-चार साल पहले ही गुजरा हो और उसी के रास्ते पर चलकर मिली आजादी के कारण ही आप उस स्थान या पद पर पहुंचे हैं जहां कि आज आप हैं। स्पष्ट है कि आप दुनिया की महानतम शख्सियतों में से एक करार किये जा चुके व्यक्ति को अपनी उम्र के 32वें साल में पहुंचकर जानते हैं तो आपको अपने आप को फिर से जानने की जरूरत है।
यह सचमुच दुखद है कि जिस भारत में महात्मा गांधी ने जन्म लिया और उसकी स्वतंत्रता की अभिनव तरीके से लड़ाई लड़ी, उसी देश का प्रधानमंत्री आजादी के 75वें वर्ष में पहुंचकर एवं पिछले साल ही जिस महामना की 150वीं जयन्ती मनाई गयी, उनके बारे में कहे कि गांधी पर रिचर्ड एटनबरो अगर फिल्म ने बनाते तो दुनिया उनकी महानता को नहीं जान पाती। हालांकि ऐसा कहकर हमारे पीएम नरेन्द्र मोदी महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंईस्टीन के उस उद्गार को चरितार्थ करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि “आने वाली पीढ़ियां इस बात पर शायद ही यकीन कर सकेंगी कि गांधी नामक हाड़-मांस का एक पुतला वाकई इसी धरती पर विचरता था।” हालांकि ऐसा कहते हुए आंईस्टीन ने बिलकुल नहीं सोचा होगा कि वह समय इतनी जल्दी आ जायेगा और गांधी पर अविश्वास की प्रक्रिया उसी देश से शुरू हो जायेगी जो गांधी जी की अपनी धरती कहलाती है। मोदी द्वारा गांधी की महानता को फिल्म के जरिये जानना कुछ ऐसा ही है मानों कोई अमेरिकी राष्ट्रपति फिल्मों के जरिये जॉर्ज वाशिंगटन या अब्राहम लिंकन की अथवा कोई ब्रिटिश पीएम ऑलिवर क्रॉमवेल की महानता को जाने या फिर कोई रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर इल्यिच उल्यानेव यानी लेनिन की।
क्या गांधी की महानता से मोदी सचमुच इतने अनभिज्ञ हैं? ऐसा तो नहीं कि मोदी गांधी को छोटा साबित कर रहे हों क्योंकि आज भी भारत को उनके कारण नहीं बल्कि उन्हीं गांधी के नाम से जाना जाता है जिनसे मोदी, उनकी विचारधारा, उनकी मातृसंस्था एवं उनके राजनैतिक दल भारतीय जनता पार्टी को परहेज ही नहीं बल्कि विरोध भी है। आखिर क्या है मोदी की गांधी से लड़ाई का कारण? भारत को लेकर गांधी की जो अवधारणा है वह मोदी के प्रयासों से एकदम विपरीत है। गांधी का सपना ऐसे भारत का निर्माण करना था जहां सभी तरह की समानताएं हों- आर्थिक व सामाजिक। देश की सांस्कृतिक विविधता को वे बरकरार रखना चाहते थे। धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिक सद्भाव गांधी के आधारभूत सामाजिक सिद्धांत थे। वे यह भी चाहते थे कि स्वतंत्रता का प्रकाश सारे समाज में एक जैसा हो और समाज के अंतिम व्यक्ति तक उसका लाभ पहुंचे। हर हाथ को काम एवं मनुष्य की बुनियादी जरूरतों का पूरा होना वे आवश्यक मानते थे। सशक्त नागरिक के रूप में मानवमुक्ति की उनकी कल्पना थी। दूसरी तरफ मोदी जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं उसमें सभी तरह के भेदभाव के रास्ते खुलते हैं। गैर बराबरी को संजोते हुए ताकतवर लोगों में श्रेष्ठी भाव उत्पन्न कर अपने लिये सत्ता प्राप्त करने या उसे बनाये रखने में उनका विश्वास है। उनकी आर्थिक नीति में थोड़े से लोगों को सम्पन्न कर उनके बर्तनों से रिसते हुए जूठन से अधिसंख्य का पेट भरना परिकल्पित है। देश पर बहुलवाद को थोपना और अल्पसंख्यकों को देश पर बोझ समझने की हाल की शक्तिशाली हुई प्रवृत्ति मोदी की देन है। पिछले आठ वर्षों से मोदी गांधी जी की देश निर्माण की कल्पना से ठीक उलट कार्य करते हुए सरकार को शक्तिशाली एवं नागरिकों को लगातार कमजोर कर रहे हैं। गांधी जी तो नागरिकों को इसलिये सशक्त करना चाहते थे ताकि वे पूर्ण रूप से स्वतंत्रता का लाभ ले सकें जबकि मोदी ‘टू मच ऑफ डेमोक्रेसी’ को नापसंद करते हैं।
हालांकि मोदी न तो इतने भोले हैं और न ही इतने अल्पज्ञानी कि वे यह न जानते हों कि 1982 में आई ‘गांधी’ फिल्म एकाएक नहीं बनी थी। 1960 में यानी गांधी की मृत्यु के केवल 12 वर्षों के बाद इसकी योजना बनी थी। लुई फिशर की गांधी पर लिखी किताब पर फिल्म बनाने के अधिकार एटनबरो ने प्राप्त कर लिये थे जो फिशर ने निशुल्क दिये थे। एटनबरो ने तब के ख्यातिनाम निर्देशक डेविड लीन से इस फिल्म को निर्देशित करने का आग्रह किया। लीन राजी तो हो गये पर वे उस समय ‘द ब्रिजेस ऑन रिवर क्वाई’ बना रहे थे। उन्होंने गांधी की भूमिका के लिये एलेक गिनेस को तय किया लेकिन फिर वे एक अन्य मूवी ‘लॉरेंस ऑफ अरेबिया’ बनाने में लग गये। एटनबरो ने 1962 में लंदन स्थित भारतीय दूतावास में कार्यरत प्रशासनिक अधिकारी एमएल कोठारी से बात कर उन्हें फिल्म का निर्देशन करने का आग्रह किया। कोठारी ने आश्वासन तो दिया पर बात आगे नहीं बढ़ी। लॉर्ड माउंटेनबेटन की मध्यस्थता में जवाहरलाल नेहरू तक बात पहुंची और तत्कालीन पीएम ने पूरी मदद का आश्वासन दिया। इसके पहले कि फिल्म निर्माण का काम बढ़ता दो साल बाद भारत-चीन युद्ध और बाद में नेहरू की मृत्यु से यह फिल्म टल गयी। वैसे यह भी जानना ज़रूरी है कि फिल्मों के घोर विरोधी एवं अपने जीवन काल में एकमात्र फिल्म (रामराज्य) देखने वाले गांधी के जीवन पर आधारित एक-दो नहीं बल्कि 11 फिल्में व डाक्यूमेंट्रियां बन चुकी हैं। सो, मोदी जी जब गांधी की महानता को 1982 में जाकर पहचानते हैं तो लगता है कि वे काफी पीछे चल रहे हैं। ऐसा कहने के कई कारण हैं। पहला तो यह है कि पहली बड़ी डाक्यूमेंट्री 1938 में एक चीनी पत्रकार व यायावर एके चेट्टियार ने बनाई जो भारत में गांधी के पीछे-पीछे या अकेले करीब एक लाख किलोमीटर घूमा था। इसे 1941 में सेंसर बोर्ड ने पास किया जो 15 एमएम पर 81 मिनट की बनी थी और इसका शीर्षक था- ‘महात्मा गांधी- ट्वेंटिएथ सेंचुरी प्रॉफेट’। इसे स्वतंत्रता के दिन यानी 15 अगस्त, 1947 को भी दिखलाया गया था। मोदी यह भी जानते ही होंगे कि जिस ब्रिटेन से लड़कर गांधी ने आजादी हासिल की थी, गोलमेज परिषद के दौरान वहीं के ईस्ट एंड के किंग्सले हॉल में ठहरे गांधी से मिलने ब्रिटिश कपड़ा मिल मजदूर पहुंचे थे जो गांधी के स्वदेशी आंदोलन के कारण बेकार हो गये थे। उन्हें कोई नाराजगी नहीं थी; बल्कि उनका कहना था कि अगर वे गांधी की जगह होते तो यही करते। उनसे मिलने चार्ली चैपलिन आते हैं, आईंस्टीन आते हैं। वही देश कालांतर में गांधी पर डाक टिकट जारी करता है और संसद भवन चौक पर मूर्ति लगाता है। जिनकी मौत पर अपवादस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ अपने झंडे को आधा झुका देता है क्योंकि भारत की आजादी की लड़ाई से प्रेरित होकर विश्व में कई मुल्क स्वतंत्र होते हैं। दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला हों या म्यांमार की नेता आंग सांग सू की, महान साहित्यकार लियो टॉल्सटॉय हों या मार्टिन लूथर किंग (जूनियर), तिब्बत के निर्वासित नेता दलाई लामा हों या मदर टेरेसा- ये सारे 1982 के काफी पहले ही गांधी की महानता से अवगत हो चुके थे। अहिंसा, सद्भावना, धर्मनिरपेक्षता, करूणा, मानवीयता के रास्ते पर जब तक आप चलते रहेंगे- गांधी की महानता से आप अनभिज्ञ हो ही नहीं सकते। गांधी जी अपिरिचित तो तभी होते हैं जब आप इसकी उल्टी दिशा का रास्ता चुनते हैं।
सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383