October 2, 2024

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर

हर शनिवार

बुलडोज़रः दमन, अहंकार और स्वेच्छाचारिता का नया प्रतीक

     -डॉ. दीपक पाचपोर

राज्य प्रवर्तित हिंसा, एक सम्प्रदाय विशेष के लिये पल रही नफरत एवं पूंजीवाद की सेवा में सतत सक्रिय शासन के दमन के रूप में भारतीय लोकतंत्र को एक नया प्रतीक मिल गया है- ‘बुलडोज़र’। चूंकि यह एक मशीन है, इसलिये इसे अन्य सभी मशीनों की तरह सिर्फ उसको संचालित करने वाले के दिशानिर्देशों का पालन करना होता है। मशीनें नहीं जानती कि उनके कामों का क्या सामाजिक, आर्थिक या राजनैतिक असर हो रहा है या होगा। अन्य सभी विज्ञान या टेक्नालॉजी की तरह सभी के अच्छे व बुरे दोनों तरह के परिणाम होते हैं। फिलहाल जिस बुलडोज़र की बात यहां हो रही है और जिसकी चर्चा इस समय देश भर में है वह सरकारी दमन के साथ सत्ता के अहंकार और तद्जन्य स्वेच्छाचारिता का प्रतीक बन गया है।
भारत के सत्ताधारी दल एवं उसके समर्थकों को इस बात पर गर्व होगा लेकिन हमारे लोकतंत्र के लिये इससे अधिक शर्मनाक बात कोई और नहीं हो सकती कि इस समय भारत के दौरे पर आये ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन मेजबान प्रधानमंत्री से बाद में मिलते हैं और पहले गौतम अडाणी के बुलडोज़र निर्माण करने वाले कारखाने में जाते हैं। अडाणी वे ही हैं जो दुनिया के अब सर्वाधिक अमीर लोगों में से एक हो गये हैं, बावजूद इसके कि कोरोना काल में भारत भर में काम-धंधे ठप होने से 80 करोड़ भारतीयों की आय घटी है, करोड़ों माह के 5 किलो मुफ्त सरकारी राशन पर जीवित हैं, लाखों रोजगार खो चुके हैं तथा गरीबी रेखा में रहने वालों की संख्या खूब बढ़ी है। महंगाई अपनी बुलन्दियों पर है और लोगों को राहत देने की बात सरकार सोच भी नहीं पा रही है। ऐसे में दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में अवैध निर्माण के नाम पर वर्षों से खड़े सैकड़ों मकानों व दुकानों को तोड़ दिया जाता है क्योंकि कुछ दिनों पहले वहां दो सम्प्रदायों के बीच मुठभेड़ हुई थी और माना जाता है कि वहां रह रहे अल्पसंख्यकों को सबक सिखलाने के लिये यह कार्रवाई की गयी है। तोड़ू कार्रवाई यह जानते हुए की गयी है कि शासन के पास दोनों ही तरह के अपराधों से निपटने के लिये पर्याप्त और स्वतंत्र कानून हैं।
वैसे पूरे देश में पहले से ही बुलडोज़र बहस का बड़ा मुद्दा बना हुआ है। बुलडोज़र सीधे जहांगीरपुरी में प्रकट नहीं हुए हैं बल्कि उसके पहले उसी दुर्भावना व निर्ममता का परिचय वे खरगौन एवं उत्तर प्रदेश में दे चुके हैं। यह एक तरह से लोक प्रशासन के शक्ति-पृथक्करण की सीधी अवहेलना है। अगर मान भी लिया जाये कि जहांगीरपुरी हो या उत्तर प्रदेश अथवा खरगौन- सरकार का काम अपराधों को रोकना व मामले दर्ज करना है, परन्तु सजा देने के लिये अलग संस्था व निर्धारित प्रक्रिया है। भाजपा शासन में खुद ही प्रक्रिया तय करना और सजा दे देना नवाचार है। यूपी में तो लोकतांत्रिक तरीके से किये गये धरना-प्रदर्शनों में संलिप्त लोगों को राज्य सरकार ने स्वयं जुर्माना तक ठोंक दिया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ये पैसे लौटाने पड़े। खरगौन व जहांगीरपुरी के उपद्रवों में सम्प्रदाय विशेष के लोगों को शामिल मानकर उनके लिये बुलडोज़र चलाये गये। यह संवैधानिक अतिक्रमण उसी भावना के तहत है जिसमें निरंकुश शासक मानते हैं कि सारी शक्तियां उनमें ही समाहित हैं। वे जो कहें वही कानून है, जिस पर चाहें कार्रवाई कर सकते हैं और सजा देने का काम भी उन्हीं का है। ऐसे में एक विदेशी अतिथि द्वारा, जो कि विश्व के एक ताकतवर देश का पीएम है, बुलडोज़र पर चढ़कर फोटो खिंचवाना भारत में मौजूद राजनैतिक व प्रशासकीय स्वेच्छाचारिता को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता देना है। भारत को एक बाजार से अधिक कुछ भी नहीं मानने वाले देश के बोरिस की यह तस्वीर चाहे सत्ता समर्थकों को आह्लादित करे, पर स्वयं ब्रिटिश पीएम अपने यहां इस मशीन का ऐसा ही उपयोग करके दिखाएं तो मानें! वैसे भारत में पल-बढ़ रही ऐसी अराजकता से उनसे अधिक खुश और कोई हो नहीं सकता क्योंकि अन्य देशों में बिगड़ते हालात ही व्यापारी देशों के लिये फायदेमंद होते हैं।
बहरहाल, जहांगीरपुरी में चल रहे बुलडोजर के ब्रेक उस समय लग गये जब सुप्रीम कोर्ट ने इसे रोकने का आदेश दिया। हालांकि तब तक बुलडोज़र अपना काफी काम कर चुका था- वह है लक्षित लोगों के जीवन को उजाड़ने का। यह अब किसी से छिपा नहीं है कि जहांगीरपुरी में न केवल ब्रेक लगा वरन यह भी पता चला कि बुलडोज़र ने न केवल दाढ़ी-टोपी वालों के घरों-दुकानों को धराशायी कर दिया वरन ‘झा’ और ‘गुप्ता’ के निर्माणों को भी तोड़ दिया। अटल आवास योजना के अंतर्गत बने मकानों को भी उसने ध्वस्त कर दिया। जिनके पास कागज थे, अनुमति थी उन्हें भी समतल कर दिया क्योंकि बुलडोज़र चाहे निर्जीव हों लेकिन उसे संचालित करने वाले अधिकारी-कर्मचारी जानते हैं कि आकाओं को किस तरह से खुश किया जाता है। आम जनता की अधिक तबाही से अधिक आनंदित होने का गुर हमारे सत्ताधारी लोगों ने तो सीख ही लिया है, उनसे जुड़े लोग भी अपने बन्धुओं की तबाही से आनंदित होने लग गये हैं। नोटबन्दी, जन धन के जरिये या फिर जनता की पूंजी लेकर फरार होते कारोबारी, जीएसटी से व्यापारियों की तबाही, सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री, नागरिक कानूनों का विरोध करने वालों या किसान आंदोलन में शामिल लोगों की प्रताड़ना-मौतें, कोरोना में पैदल चलते गरीब, गंगा में बहती या किनारों पर रेत में दबी लाशें- इनमें से कुछ भी सरकार की आलोचना के विषय नहीं हैं और लोगों को इनके विषय में खुश-खुश होकर सकारात्मक बने रहना है।
भारत की राजधानी में चले इस बुलडोज़र ने भारत के राष्ट्रीय चरित्र को भी बेनकाब कर दिया है। देश की गोदी मीडिया की प्रतिनिधि चेहरा बन चुकी एक टीवी पत्रकार ने तबाही का सबब बने बुलडोज़र की सीट पर जैसी ऐंठ भरी मुद्रा में फोटो खिंचवाई है, वह इसका पर्याप्त सबूत है कि मीडिया सत्ता का भागीदार बन गया है और उसके हर जनविरोधी कार्यों में उसका साथीदार है। ऐसा माना जा रहा है कि यह तोड़-फोड़ दिल्ली नगर निगम के आगामी चुनावों को लेकर हुई है ताकि वहां वोटों का ध्रुवीकरण हो सके। बहुसंख्यकों के वोट खोने के डर से वहां न तो कांग्रेस के नेता दिखे और न ही आम आदमी पार्टी (जिसकी दिल्ली में भारी बहुमत वाली सरकार है) के। अल्पसंख्यकों व दलितों की आवाज होने का दावा करने वाले नेता व उनकी पार्टी के कार्यकर्ता भी वहां नहीं दिखे जिन समुदायों की यहां बहुलता है और बुलडोज़र चलने से जिनके सर्वाधिक नुकसान का अंदेशा है। अलबत्ता एक बुजुर्ग साम्यवादी नेता अवश्य बुलडोज़र के सामने सीना तानकर खड़ी हो गयीं और साबित कर दिया कि जनता का उसके सुख-दुख में असल साथी अगर कोई है तो वह वामपंथ है, जिसे सारे या तो गालियां देते हैं और उसके वजूद को खत्म हुआ मानते हैं।
जो भी हो, इस कार्रवाई पर फिलहाल तो अदालती रोक लगी हुई है लेकिन उम्मीद की जानी चाहिये कि सुप्रीम कोर्ट जब इस मामले की सुनवाई करे तो वह सभी राज्यों की सरकारों को सख्त व स्पष्ट चेतावनी दे कि शासन की कोई भी कार्रवाई पूर्वाग्रह से ग्रस्त न हो। लोकतंत्र में स्वेच्छाचारिता सबसे खतरनाक है। शासन का हर धड़ा वही काम करे जिसके लिये वह मुकर्रर किया गया है। सबके अधिकार व कर्तव्य सुपरिभाषित हैं। इन्हें गड्डमड्ड करना समग्र लोकतंत्र को बर्बाद कर देगा, जिसकी शुरुआत ‘बुलडोज़र राज’ के रूप में हो चुकी है।

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383

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