समीक्षा: छत्तीसगढ़ में मुक्ति – संग्राम और आदिवासी @ विशाखा मुलमुले
विशाखा मुलमुले
इतिहास अध्ययन की इस किताब का पूर्वरंग अब्राहम लिंकन के कोट से आरम्भ होता है तदनंतर कवि , लेखक , पत्रकार , इतिहास- लेखक डॉ सुधीर सक्सेना जी की सशक्त कलम से अनेक पाठ प्रवाहमान होते जाते है । वे लिखते हैं – इतिहास की पाठशाला अद्भुत पाठशाला है । यह खुले दरवाजों की ऐसी पाठशाला है , जिसमें द्वार या कपाट नहीं हैं । हाँ , वहाँ प्राचीन भित्तियाँ हैं , गवाक्ष हैं , अछोर गलियारे और दफीने हैं । यहीं नहीं , वहाँ पदचाप , आहटें , फुसफुसाहटें ही नहीं , क्रंदन और कोलाहल भी सुना जा सकता है । इसमें सबको प्रवेश की पात्रता है । प्रवेश की एकलौती शर्त है जिज्ञासा ।
इसी जिज्ञासा के बलबूते डॉ सुधीर सक्सेना जी , अपने अध्यापक डॉ हीरा लाल शुक्ल जी ( आदिवासी भाषा , संस्कृति एवं इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान )की प्रामाणिक शोध और लेखन की मशाल थामे छत्तीसगढ़ के आदिवासी एवं मुक्ति संग्राम के इतिहास के गलियारे में कदम रखते हैं ।
घटनाएं क्रमानुसार इंग्लैंड के बादशाह की भारत से व्यापार करने की मंशा , सर टामस रो का मुगल सम्राट जहांगीर के दरबार में सन 1615 से सन 1618 तक दूत बना रहना , ईस्ट इंडिया कम्पनी का आगमन व उसके पाँव पसारने के रूप में आगे बढ़ती है । जो कि मुगल साम्राज्य के अवसान और क्षेत्रीय शक्तियों – मराठा , राजपूत , सिख और निजाम आदि के आपसी संघर्षों के बदौलत अंग्रेजों को पनपने की जमीन मुहैया कराती है।
ब्यौरों से पता चलता है कि जून सन 1818 में मराठों के साथ संधि के फलस्वरूप छत्तीसगढ़ कम्पनी सरकार के आधिपत्य में आ जाता है । सन 1854 के आते तक कैप्टन इलियट बस्तर समेत छत्तीसगढ़ के प्रथम ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर बन जाते हैं । यही वह समय था जब ईस्ट इंडिया कम्पनी की नीतियों के कारण गाँव – गाँव में फैले कुटीर उद्योग धड़ाधड़ बंद हो रहे थे तथा उनके मन में असंतोष की दबी आग सुलगने लगी थी । कम्पनी सरकार भारतीय किसानों , व्यापारियों और स्वाभिमानी जमींदारों के दमन के लिए हर सम्भव तरीके अपना रही थी । राजस्व सुधारों के नाम पर किसानों को दिवालियेपन की ओर धकेला जा रहा था । भू – राजस्व वर्ष 1818 में 3 ,31, 470 रुपये के स्थान पर वर्ष 1825 में 4, 04, 224 रुपये हो गया था । दमन चक्र जैसे – जैसे विकराल हो रहा था स्वाधीनता की भावना वैसे – वैसे बलवती हो रही थी । इन्हीं लोगों ने अंततः स्वराज्य और स्वधर्म की भावना से उत्प्रेरित होकर सन 1857 में क्रांति के आव्हान का उत्तर सोनाखान के आदिवासी जमींदार वीर नारायणसिंह बिंझवार के नेतृत्व में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष के जरिये दिया । कम्पनी सरकार ने वीर नारायणसिंह के खिलाफ अनेक अभियोजन लगाए , मुकद्दमे चलाये एवं उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गई । एक बार उन्हें कारागृह में कैद भी किया गया पर वे पलायन में सफल हुए सोनाखान में उन्होंने पुनः मोर्चा खोला , डटे रहे , पर देवरी के जमींदार ने धोखा दिया । उसने स्मिथ का मार्गप्रशस्त किया तथा वीर नारायणसिंह की पकड़ को सुलभ बनाया ।
वीर नारायणसिंह ने जहाँ शहादत पाई ,रायपुर के उस स्थान को आज जयस्तंभ चौक कहते हैं । पर शौर्य की इस गाथा को कितने लोग जानते हैं या कितनों का शीश उन्हें याद कर यहाँ नतमस्तक होता है । इतिहास अध्ययन की किताबें हमें यह मौका देती है साथ ही अवसर प्रदान कराती है कि हम उन पृष्ठों पर जमी धूल को हटा सके , पूर्वजों के बलिदानों पर गर्व कर सके ।
इस प्रकार पृष्ठ दर पृष्ठ तिथियां बदलती जाती है , नायक बदलते जाते हैं पर नहीं बदलती तो वह थी भारत की तकदीर ।
किताब से हमें पता चलता है कि वस्तुतः बस्तर के प्रथम शहीद होने का श्रेय अजमेर सिंह को जाता है , अजमेर सिंह का बलिदान 1779 की घटना है । परलकोट के जमींदार गेंदसिंह , लाल कालेंद्र सिंह, वीर हनुमान सिंह , अजमेर सिंह , अजीतसिंह, नाना साहेब , गुंडाधूर , कांकेर रियासत के अनाम सिपाही इंदरु केवट जैसे अनेक नायक स्वाधीनता संग्राम के हवन की समिधा बने । जिसमें की वीर हनुमान सिंह व गुंडाधूर का पकड़े नहीं जाना , उनका अज्ञातवास में जाना ही उनकी सफलता है ।
परवर्ती नायकों में राजा प्रवीरचंद भंजदेव जी का नाम फलक पर चमकता है जिन्होंने बस्तर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान व अभिव्यक्ति दी तथा बस्तर की अस्मिता की रक्षा के लिए भी निरंतर यत्न किये । इसी क्रम में कांकेर के रामप्रसाद पोटाई ने अंचल में कांग्रेस का बिरवा रोपकर राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूती दी । वे अंग्रेजो के खिलाफ लड़े और राजशाही के खिलाफ भी ।
बस्तर की वीरांगनाओं के बारे में ज्ञात होता है कि महारानी प्रफुल्ल देवी ने ब्रिटिश सरकार का कोप झेला । 28 फरवरी 1936 को लंदन में ' अपेंडिसाइटिस ' के ऑपरेशन के कारण हुई मौत के पीछे अंग्रेजों के षड़यंत्र का हाथ था । क्योंकि महारानी ने बैलाडिला के लौह अयस्क को हैदराबाद के निजाम के हाथों में जाने से बचाने में अहम भूमिका निभाई थी।
शहीद गेंदसिंह के साथ क्रांतिकारी महिला रामोतीन ने भी परलकोट विद्रोह में सक्रिय भाग लिया था और रणभूमि में लड़ते हुए मारी गई थी। इस तरह अनाम वीरांगनाओं के नाम जो अब तक इतिहास के पृष्ठों से नदारद थे उन्हें इस किताब के माध्यम से उनका यथोचित स्थान प्राप्त होते दिखता है ।
लेखक बताते चलते हैं कि बस्तर के हलबाओं को प्रथम विद्रोह का श्रेय प्राप्त है । विद्रोह का यह क्रम अनवरत चलता रहा । दूसरा विद्रोह सरगुजा एवं बस्तर में हुआ । अजीतसिंह इस विद्रोह के नायक माने जाते हैं । वे एक कुशल योद्धा थे । वे सन 1792 ईस्वी में संघर्ष के दौरन शहीद हुए ।
हमें पता चलता है कि छत्तीसगढ़ में कंपनी – सरकार के विरुद्ध एक अन्य विद्रोह भोपालपटनम संघर्ष ( 1795 ) के नाम से प्रसिद्ध है । इस विद्रोह में कैप्टन जे. टी.ब्लंट अपनी सेना के साथ बस्तर में प्रवेश करना चाहते थे पर राजा दरियावदेव के गोंड सैनिकों ने उन्हें भोपाल में ही रोक दिया इसमें अनेक गोंड शहीद हो गए । किस तरह मराठों के साथ छल कपट के कारण अंततोगत्वा सन 1818 में छत्तीसगढ़ कम्पनी सरकार के हाथ में आ गया यह भी हमें पता चलता है । कालांतर में एगन्यू ने एडमंड्स के बाद छत्तीसगढ़ की कमान संभाली और 1830 तक छत्तीसगढ़ को सूबा कहा जाने लगा।
इतिहास का एक पृष्ठ बताता है कि छोटा नागपुर में वर्तमान छत्तीसगढ़ की 5 रियासतें थी – सरगुजा , उदयपुर , जशपुर , कोरिया तथा चारंगभरवार । इस क्षेत्र में कोलो ने संघर्ष किया। यह सभी गैर आदिवासी जमींदारों , सूबेदारों तथा भूमि के हथियाने वालों के विरुद्ध लामबंद हुए थे। इन कोलो का उक्त विद्रोह बिहार के बिरसा आंदोलन तथा बस्तर के मुरिया आंदोलन से मिलता जुलता दिखता है । 1831 -32 का विद्रोह विरोध प्रदर्शन का अभद्र रूप था जिसमें आदिवासियों ने सम्पन्न घरों को ही निशाना बनाया था । इस विद्रोह के नेता बुद्धू भगत ( सरगुजा ) , जोआ भगत ( उदयपुर ) तथा केसो भगत ( जशपुर ) कालांतर में शहीद हो गए क्योंकि वे पारम्परिक आयुधों से सशस्त्र ब्रिटिश सेना से बहुत अधिक दिनों तक नहीं लड़ सकते थे ।
लेखक के कहे अनुसार भारतीय इतिहासकारों ने छत्तीसगढ़ के उक्त विद्रोहों का कोई उल्लेख नहीं किया है । इन इतिहासकारों ने आजादी के संघर्ष के इतिहास को एक खास विचारधारा के अनुसार लिखा है और इस फ्रेम में छत्तीसगढ़ का आदिवासी नहीं आता । जबकि परलकोट विद्रोह 1825 पहले मराठों के खिलाफ था बाद में अंग्रेज विरोधी विद्रोह में बदल गया । तारापुर विद्रोह (1842 -1854) प्रारंभ में बस्तर के दीवान के खिलाफ था बाद में राजविद्रोह में बदल गया । मेरिया विद्रोह (1842 -1863) पहले मुसलमानों के विरुद्ध था बाद में ब्रिटिश शासन के खिलाफ हो गया । मुरिया विद्रोह (1876 ) पहले मुंशियों के खिलाफ था बाद में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह में बदल गया ।
हमें विदित होता है कि 1857 का विद्रोह यद्यपि स्वतंत्रता के लिए किए जाने वाला भारतीयों का प्रथम महाप्रयास था , तथापि छत्तीसगढियों के लिए यह नौवां प्रयास था क्योंकि छत्तीसगढ़ में 1774 ईस्वी से ही अंग्रेजों को धूल चटाने का प्रयास किया था ।
लेखक ने सन 1910 का इतिहास सबसे गाढ़ी स्याही से लिखा है क्योंकि बस्तर ने परतंत्रता के विरुद्ध सबसे शक्तिशाली शंखनाद इसी समय इंद्रावती के तट पर किया था । जिसके नायक बने लाल कालेंद्र सिंह एवं गुंडाधूर । वस्तुतः लाल कालेंद्रसिंह भुमकाल का मस्तिष्क थे । जे . आर. वाल्यार्नी जैसे इतिहासकार लाल कालेंद्रसिंह को ”बस्तर केसरी ‘ की संज्ञा देते हैं ।
सुधीर सक्सेना जी कहते हैं गहराता असंतोष सर्वदा विद्रोह की जमीन तैयार करता है । यही बात छत्तीसगढ़ पर भी लागू होती दिख रही थी । वे बताते हैं बस्तर के राजसत्ता के एक हाथ में राजदंड तथा दूसरे हाथ में धर्मदंड रहता था और अंग्रेजी शासन दोनों हाथों पर शिकंजा कस रहा था । राजा का इस तरह निरुपाय व अशक्त होना आदिवासियों को पीड़ा पहुँचा रहा था । साथ ही साथ उनके भी सीधे सादे जीवनयापन के तौर तरीकों पर बेड़ियां कसीं जा रही थी । संशोधित वन कानून की आड़ में उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल किया जा रहा था । उनकी प्रथाओं एवं प्राथमिकताओं पर लगातार आघात हो रहा था । बेगार की अमानवीय कुप्रथा , शराब के नशे में आदिवासी औरतों का यौन शोषण बस्तर को आक्रांत कर रहा था । इस तरह भुमकाल का आंदोलन जनसाधारण का आंदोलन बना । जिसकी चिंगारी अबूझमाड़ जैसे नितांत एकाकी इलाके को भी आंदोलित कर गई । बताते हैं कि महान भुमकाल में आदिवासियों के रक्त से इंद्रावती का पानी लाल हो गया था । लेखक कहते हैं इस दमन की तुलना जलियांवाला बाग नरमेध ( 1919 ) से की जा सकती है ।
हमें ज्ञात होता है महान भुमकाल में लाल मिर्च विद्रोहियों के क्रांतिकारी संदेशों के प्रतीक रूप में बांटी जाती थी ठीक कमल और रोटी की तरह । बस्तर में विप्लव के सन्देश लाल मिर्च के साथ ही साथ मिट्टी , धनुष बाण और आम की टहनियां भी पहुंचाई जाती थी ।
भुमकाल का नायक गुंडाधूर आज भी बस्तर की दंतकथाओं , वाचिक परम्पराओं , लोकगीतों में जीवित है । विद्रोह की पटकथा के साथ ही साथ लेखक ने किताब में सम्बंधित लोकगीतों को भी स्थान दिया है जो छत्तीसगढ़ से उनके आत्मीय सम्बंध को और मजबूती से दिखाता है ।
परत दर परत हम अपने इतिहास को अनावृत होते देखते हैं , देखते हैं किस तरह अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति हर विद्रोह को तहस – नहस कर देती है । संगठित ताने – बाने में एक न एक कच्चा धागा वे खोज ही निकालते थे जो विद्रोह को तार – तार कर देता था । भुमकाल मे भी घात – प्रतिघात , क्रांतिकारी – प्रतिक्रान्तिकारी शक्तियां समान रूप से विद्यमान होती दिखती है या कहे तो प्रतिक्रान्तिकारी शक्तियां अधिक बलवान , नवीन आयुधों से लैस दिखती है जो हर विद्रोह को कुचल देती है। लाल कालेंद्रसिंह की गिरफ्तारी तथा आटविक योद्धा गुंडाधूर के अज्ञातवास के साथ ही यह विद्रोह भी बस्तर के मंच से नेपथ्य में चला जाता है । पर दंड स्वरूप अनेक वर्षों तक बस्तर का सीना लहूलुहान होता रहता है ।
तभी स्वतंत्रता संग्राम के फलक पर तथा किताब के पृष्ठ पर गांधीजी का पदार्पण होता है । लेखक ने बड़ी खूबसूरती से मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ समाहित ) में गांधीजी के हर एक कदम को चिन्हित किया उनके प्रभावों को लक्षित किया । हिंसात्मक आंदोलन गांधीजी के प्रभाव में आने से किस तरह अहिंसात्मक आंदोलन में परिवर्तित हुए , छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की स्थापना के साथ किस तरह राष्ट्रीय चेतना संग छत्तीसगढ़ की चेतना का संगम हुआ , लोक में समरसता का किस तरह उद्भव हुआ अनेकानेक बातें किताब में सम्मिलित है ।
लेखक बताते चलते हैं कब व कैसे छत्तीसगढ़ में गांधीजी के कदम रायपुर , धमतरी , दुर्ग , बिलासपुर में पड़े उनका श्रेय किसे प्राप्त होता है – उदाहरण के रूप में पंडित रविशंकर शुक्ल , राजेन्द्र सिंह आदि – इत्यादि । जिस तरह खान अब्दुल गफ्फार खान सीमन्त गांधी के नाम से जाने जाते हैं उसी तरह पंडित सुंदरलाल शर्मा को छत्तीसगढ़ी गांधी के नाम से ख्याति प्राप्त करते हैं । वे कंडेल नहर सत्याग्रह के नायक रहे । किताब में रायपुर में गांधीजी के भाषण का अंश भी है जिसमें उन्होंने पंडित सुन्दरलाल शर्मा जी को हरिजन उद्धार कार्य के कारण अपना गुरु माना ।
रुद्री – नवागांव का जंगल सत्याग्रह , तमोरा महासमुन्द एवं बालोद का जंगल सत्याग्रह ऐसे अनेकानेक आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम के सोपान बनते हैं व उन्हें पढ़ते वक्त गर्व की अनुभूति कराते हैं ।
किताब के शीर्षक को अर्थात्मक बनाते हुए सुधीर सक्सेना जी ने एक सुगठित सुव्यवस्थित व्यापक फलक रचा है जिसमें छोटे से बड़े हर तारे को मुक्ति संग्राम के आसमां पर तथ्यात्मक अंकन करते हुए टाँका है । जो किताब की विश्वसनीयता में चार चांद लगाता है ।
किताब के ब्लर्ब में आदरणीय राजेन्द्र चंद्रकांत राय ने इस बात को रेखांकित भी किया है कि ” छत्तीसगढ़ में सम्पन्न हुए मुक्ति संग्राम में आदिवासियों की ऐतिहासिक भूमिका पर सबसे ज्यादा तथ्यपरक और गवेषणायुक्त कोई अन्य ग्रन्थ होगा , इसमें संदेह ही है। साथ ही वे लिखते हैं डॉ सुधीर सक्सेना ने इतिहास की गहरी समझ के साथ छत्तीसगढ़ के मुक्ति संग्राम पर नितांत नयी और खोजी नज़र डाली है । अद्भुत मौलिकता नई और अचिन्ही स्थापनाएं तथा कहन – शैली की प्रांजल आधुनिकता ने इस ग्रंथ को विशिष्टता और औपन्यासिक छटा प्रदान कर दी है । “
यह ऐतिहासिक औपन्यासिक , पठनीय एवं संग्रहणीय ग्रथं भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है जो सर्वदा श्रेष्ठ भारतीय साहित्य पाठकों को उपलब्ध कराता है ।
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