November 22, 2024

जिग्नेश मेवाणी कांग्रेस के साथ हैं, लेकिन पार्टी के औपचारिक सदस्य नहीं

नईदिल्ली 29 सितम्बर। गुजरात से निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी कांग्रेस के साथ तो हैं, लेकिन उन्होंने पार्टी की औपचारिक सदस्यता अभी नहीं ली है क्योंकि वे कांग्रेस में अभी शामिल होते हैं तो उनकी विधानसभा की सदस्यता खत्म हो सकती है। यानि वे कांग्रेस के भीतर भी हैं और कांग्रेस से बाहर भी।

आपको बता दें कि गत 28 सितंबर को कन्हैया कुमार और गुजरात से निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी के कांग्रेस का हाथ थामने के बाद राजनीतिक गलियारों में तमाम तरह की चर्चाएं हैं। इन चर्चाओं का एक अहम हिस्सा निर्दलीय विधायकों के लिए दल-बदल विरोधी कानून भी है।

दरअसल 28 सितंबर को कन्हैया ने तो कांग्रेस की सदस्यता ले ली थी, लेकिन मेवाणी ने कांग्रेस की औपचारिक सदस्यता नहीं ली थी। इसके पीछे मेवाणी ने तर्क दिया था कि वह कांग्रेस की विचारधारा के साथ हैं लेकिन अभी अगर उन्होंने कांग्रेस ज्वाइन की तो वे विधायक पद पर नहीं रह पाएंगे क्योंकि वह निर्दलीय चुनकर आए हैं। बता दें कि संविधान की दसवीं अनुसूची, जिसे दल-बदल विरोधी कानून के रूप में जाना जाता है, उन परिस्थितियों की ओर इंगित करती है, जिसके तहत अगर कोई विधायक राजनीतिक दल बदलता है तो उस पर कार्रवाई हो सकती है। इसके तहत अगर कोई निर्दलीय विधायक चुनाव के बाद किसी पार्टी में शामिल होता है, तो उस पर कार्रवाई होती है।एक सांसद या एक विधायक द्वारा राजनीतिक पार्टियों को बदलने के मामले में 3 कानूनी कंडीशन हैं। पहली कंडीशन तब बनती है, जब किसी राजनीतिक दल के टिकट पर निर्वाचित सदस्य पार्टी की सदस्यता को अपने मन से छोड़ता है। दूसरी कंडीशन तब बनती है, जब एक शख्स निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़कर विधायक बनता है और बाद में एक राजनीतिक पार्टी में शामिल होता है।

पहली और दूसरी कंडीशन में विधायक अपनी सीट खो देता है। वहीं तीसरी कंडीशन मनोनीत सांसदों से संबंधित है। उनके मामले में, कानून उन्हें नामांकित होने के बाद, एक राजनीतिक दल में शामिल होने के लिए 6 महीने का समय देता है। यदि वे इस समय के बाद किसी पार्टी में शामिल होते हैं, तो वे सदन में अपनी सीट खो देते हैं।दलबदल विरोधी कानून की जांच: 1969 में, गृहमंत्री वाईबी चव्हाण की अध्यक्षता में एक समिति ने दल-बदल के मुद्दे की जांच की थी। उस दौरान ये पाया गया था कि 1967 के आम चुनावों के बाद, दल-बदल ने भारत में राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है।उस समय 376 में से 176 निर्दलीय विधायक राजनीतिक दल में शामिल हो गए थे। हालांकि, उस समय समिति ने निर्दलीय विधायकों के खिलाफ किसी कार्रवाई की सिफारिश नहीं की थी। लेकिन फिर भी एक सदस्य ने निर्दलीय के मुद्दे पर समिति से असहमति जताई थी और वे चाहते थे कि अगर निर्दलीय किसी राजनीतिक दल में शामिल होते हैं तो उन्हें अयोग्य घोषित किया जाए।

चव्हाण समिति द्वारा इस मुद्दे पर सिफारिश नहीं की गई, इसलिए दलबदल विरोधी कानून (1969, 1973) बनाने की शुरुआती कोशिशों के दौरान राजनीतिक दलों में शामिल होने वाले निर्दलीय विधायकों को शामिल नहीं किया गया था।इसके बाद 1978 में, स्वतंत्र और मनोनीत विधायकों को राजनीतिक दल में शामिल होने की अनुमति दी गई थी, लेकिन 1985 में संविधान में संशोधन किया गया और निर्दलीय विधायकों को एक राजनीतिक दल में शामिल होने से रोक दिया गया और मनोनीत विधायकों को 6 महीने का समय दिया गया।

दल-बदल विरोधी कानून के तहत अयोग्य कौन करार देता है: दल-बदल विरोधी कानून के तहत, किसी सांसद या विधायक की अयोग्यता का फैसला करने की शक्ति विधायिका के पीठासीन अधिकारी के पास होती है। हालांकि इसमें समय को लेकर बहुत पाबंदी नहीं है। विधायिकाओं के अध्यक्षों ने कभी-कभी बहुत तेजी से भी काम किया है और कई बार सालों तक फैसला सुनाने में देरी की है। ऐसे में इस मामले को लेकर राजनीतिक पूर्वाग्रह का भी आरोप लगता रहा है। हालांकि बीते साल, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 3 महीने के अंदर स्पीकर द्वारा दलबदल विरोधी मामलों का फैसला किया जाना चाहिए । इसका एक उदाहरण ये है कि पश्चिम बंगाल में, भाजपा विधायक मुकुल रॉय के खिलाफ अयोग्यता याचिका 17 जून से विधानसभा अध्यक्ष के पास लंबित है। ऐसे में कलकत्ता हाई कोर्ट ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा था कि समय सीमा निकल गई है, इसलिए रॉय के खिलाफ स्पीकर 7 अक्टूबर तक फैसला लें !

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