November 22, 2024

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर

हर शनिवार (05 फरवरी 2022)

केन्द्रीय बजटः उत्तरदायित्वहीनता और भविष्य से खिलवाड़ एक साथ

     -डॉ. दीपक पाचपोर

शासन की जवाबदेही लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहली शर्त है। वैसे तो कोई भी शासक जनता के प्रति जवाबदेह होना नहीं चाहता लेकिन यह प्रणाली नागरिकों को इतनी ताकत और अवसर देती है कि वह सरकार का गिरेबान पकड़कर उसके कामों का लेखा-जोखा ले; और अगर काम सत्तारुढ़ दल के वादों के मुताबिक न हो अथवा कमतर साबित हो तो वह उसे सत्ता से बेदखल कर दे। सरकार को जनता की अदालत में हाजिर होकर जवाब देने होते हैं। जब ऐसा नहीं होता तो समझिये देश, उसका लोकतंत्र और पूरी अवाम का भविष्य ही दांव पर लगा है। सरकार की आयु केवल 5 साल की होती है जबकि नागरिकों व उनके वारिसों को लम्बा जीना होता है तथा देश व जनतंत्र तो अजर-अमर होता ही है। सरकारों की उत्तरदायित्वहीनता लोकतंत्र को खतरे में डालती है। इसलिये खुद जनता को चाहिये कि वह सरकारों से लगातार सवाल पूछे। प्रश्न न करना स्वयं के भविष्य को बिगाड़ने जैसा है। दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में हमारे हुक्मरानों में जवाब देने में कोताही बरतने की प्रवृत्ति तो बढ़ती ही जा रही है, जनता भी सवाल करने से कतराने लगी है। सच तो यह है कि पारदर्शिता के साथ उत्तरदायित्व की भावना किसी भी सरकार को बड़ा बनाती है और सवाल करने से नागरिक सशक्त होते हैं। अंततः दोनों मिलकर लोकतंत्र एवं दंश को मजबूती देते हैं।
भारत एक संघीय व्यवस्था है जिसमें राज्यों का प्रशासन तो प्रदेश सरकार के हाथ में होता है परन्तु देश को एक सूत्र में बांधकर नागरिकों को संविधान के दायरे में उपलब्ध अधिकार प्रदान केन्द्र को करने होते हैं। किसी घोषणापत्र के आधार पर वोट प्राप्त कर बनी सरकार की यह संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह नियमित अंतराल में अपने कामों का विवरण जनता के सामने ईमानदारी से पेश करे। जैसा कि कहा गया है कि बड़ा बहुमत सरकारों को अक्सर निरंकुश बनाता है, दुर्भाग्य से यही आज हम भारत में होता हुआ देख रहे हैं। अनेक अवधारणाओं (जिनमें से कई कालान्तर में निरर्थक साबित हुईं) पर सवार होकर और बड़ी उम्मीदों के साथ भारत की जनता ने 2014 के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार को देश चलाने का मौका दिया था। पांच वर्ष मोदी ने अनेक ऐसे फैसले लिये जो आगे चलकर न केवल असफल साबित हुए बल्कि उससे देश की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ी। ऐसे निर्णयों में नोटबन्दी और जीएसटी का उल्लेख किया जा सकता है जिनके असर से आज तक जनता पूरी तरह से उबर नहीं पाई है। हालांकि सरकार एवं उसके समर्थक इसका वास्तविक असर दिखलाने की बजाये सवाल करने वालों या इन निर्णयों की आलोचना करने वालों को ही कठघरे में खड़ा करते रहे। इसी प्रकार से जन धन योजना, उज्ज्वला परियोजना, स्मार्ट सिटी, नमामि गंगे जैसी अनेक योजनाएं बनीं परन्तु किसी ने भी अनुमानों के मुताबिक परिणाम नहीं दिये। थोड़े-थोड़े समय में केन्द्र सरकार नई योजनाएं तो लाती रहीं परन्तु कभी भी पुरानी योजनाओं के परिणाम बताने की उसने जहमत नहीं की।
नाकामयाब कार्यक्रमों की लम्बी फेहरिस्त के बाद भी नई आशाओं के साथ जनता ने 2019 में मोदी को फिर से मौका दिया। बड़ा बहुमत पाकर मोदी की ताकत और भी बढ़ी। भाजपा ने इससे बल पाकर ऐसे अनेक फैसले लिये जिसका इंतज़ार उनकी पार्टी के समर्थक कर रहे थे- मसलन, तीन तलाक प्रथा पर पाबंदी, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति, एनआरसी व सीएए (नागरिकता संबंधी कानून) आदि। साथ ही सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले से अयोध्या में बहुप्रतीक्षित राममंदिर के निर्माण का मार्ग भी प्रशस्त हुआ। तीन कृषि कानून लाना भी ऐसा ही कदम था। दूसरी तरफ अनेक ऐसे काम भी हुए जिन्हें भाजपा एवं मोदी सरकार अपनी उपलब्धियों में तो शुमार करती है लेकिन सचाई तो यह है कि उससे देशवासियों की भौतिक जरूरतें पूरी नहीं होतीं। रोजगार, शिक्षा का गिरता स्तर, महंगाई आदि से देशवासी त्रस्त हैं। उनके दूसरे कार्यकाल के दौरान ही आए कोविड-19 ने भारत की अर्थव्यवस्था की कमर को तोड़कर रख दिया। बड़ी संख्या में नागरिकों का जीवन तबाह हुआ। कुप्रबंधन के चलते कोरोना काल के पहले चरण में लाखों गरीबों को सड़क मार्ग से सैकड़ों किलोमीटर चलते हुए अपने घरों में पहुंचना पड़ा था। रास्ते में सैकड़ों मारे गये। दूसरे चरण की विभीषिका और भी भयावह रही। ऑक्सीजन एवं चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में लाखों ने दम तोड़ा। ऐसी त्रासदी में भी मोदी का नया संसद ‘सेन्ट्रल विस्टा’, बनावाना, विदेशी शासकों के आगमन में उत्सव करना, चुनावी रैलियां करना, राज्य सरकारें बनाना-बिगाड़ना बदस्तूर जारी रहा। उत्पादकता में भारी गिरावट और लोगों तक आवश्क वस्तुओं की घटी आपूर्ति ने महंगाई के ग्राफ को काफी ऊंचा पहुंचा दिया। कोरोना के कारण घटी आय एवं नौकरियों के जाने से बड़े पैमाने पर लोगों की दुर्दशा हुई। वैसे भी पेट्रोल-डीज़ल एवं खाद्यान्नों की सतत बढ़ती कीमतों ने नागरिकों के जीवन पर बहुत ही बुरा प्रभाव डाला है। परिणाम यह हुआ है कि 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा में शामिल हो गये हैं। 4 करोड़ लोगों ने अपने रोजगार खोये हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 80 करोड़ लोगों की आय घटी है। केन्द्र सरकार इनमें से एक बड़े हिस्से को मासिक रूप से कुछ राशन दे रही है, जो 5 ट्रिलियन इकानॉमी का सपना संजोने वाले देश के लिये बेहद शर्मनाक है।
इन तमाम परिस्थितियों में किसी भी सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह पारदर्शी तरीके से न केवल सभी तथ्यों को सामने रखे बल्कि लोगों को राहत देने के लिये जन सरोकार के आर्थिक कार्यक्रम प्रस्तुत करे। इसके विपरित सरकार की ओर से अनेक तथ्यों को या तो छिपाया जाता रहा है या गलत आंकड़े पेश किये जाते रहे। कई आंकड़े तो सरकार ने सम्भालने ही बन्द कर दिये हैं। संसद में अक्सर सरकार असंतोषजनक जवाब देकर अपनी जिम्मेदारी से भागती रही है। संसद के जारी बजट सत्र में भी सरकार का यही रवैया सामने आया है। हाल-फिलहाल की स्थिति पर बात करने और जारी योजनाओं का रिपोर्ट कार्ड पेश करने की बजाय वह देशवासियों को 25 साल के सपने दिखला रही है। सरकार 2022 के लक्ष्य से कितने और क्यों पीछे है, इसका कोई उल्लेख राष्ट्रपति के अभिभाषण में नहीं है। इसकी बजाये इसे 2047 से फल देने वाला बजट बताया गया है। स्वतंत्रता के 100 साल की पूर्णता से उसे जोड़ते हुए आर्थिक कार्यक्रम को अनावश्यक महिमामंडित किया गया है- ‘अमृत काल’ एवं ‘सौ साल के विश्वास का बजट’ बतलाते हुए। ऐसे समय में जब गरीबों व मध्य वर्गों के लिये बजट बनना चाहिए था, मोदी सरकार ने पूरी तरह से उच्च वर्गों को फायदा पहुंचाने वाला बजट बनाया है। उत्तरदित्वहीनता का यह भी एक दूसरा रूप है। देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ तो है ही।

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383

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