November 22, 2024

साहित्य: तरल भाव संवेदना के अदभुत शिल्पकार- गीत कवि नरेंद्र श्रीवास्तव

                                      आलेख- सतीश कुमार सिंह 

हिन्दी गीतों की परंपरा और नव्यता के मध्य संतुलन साधना आसान नहीं है । काव्य की छांदसिक विधाओं में ज्यादातर वैयक्तिक हर्ष विषाद को व्यक्त करते हुए गीतकार लगभग एक ही प्रकार के शब्द संधान के साथ एक खास तरह की रूढ़ता के अक्सर शिकार हो जाते हैं लेकिन जो रचनाकार समय के साथ जीवन के क्रिया व्यापार तथा मूल्यों के बदलाव पर अपनी निगाह रखते हैं वे हमेशा जीवंत और रचनात्मक बने रहते हैं ।
जांजगीर के वरिष्ठ गीतकार दादा नरेंद्र श्रीवास्तव उन्हीं में से एक हैं जिन्होंने निरंतर समय के साथ कदम ताल करते हुए अपनी रचनाओं से हिंदी साहित्य तथा काव्य मंचों को समृद्ध किया । यही नहीं उन्होंने जांजगीर के रचनाकारों की एक पूरी पीढ़ी को तैयार करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया । 21 जून 1937 को छत्तीसगढ़ के तखतपुर तहसील के एक छोटे से गांव विजयपुर के एक साधारण परिवार में जन्मे नरेंद्र श्रीवास्तव का बचपन अभावों और संकटपूर्ण स्थितियों में गुजरा । उनके पिता कुंजबिहारी लाल श्रीवास्तव राजस्व निरीक्षक पद से सेवा निवृत्त हुए थे लेकिन परिवार बड़ा होने की वजह से अर्थाभाव बना रहा । नरेंद्र श्रीवास्तव ने इन परिस्थितियों में अपनी प्रारंभिक शिक्षा बड़ी कठिनाइयों से जूझते हुए पूरा किया और अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की डिग्री हासिल कर हिन्दी साहित्यरत्न में स्नातकोत्तर तक पढ़ाई पूरी करते हुए गीत साधना में भी संलग्न रहे । कम उम्र में ही उन्हें घर बार चलाने के लिए पिता के निर्देश पर नौकरी का सहारा लेना पड़ा । एसडीएम कार्यालय में रीडर की नौकरी करते हुए वे विकासखंड कार्यालय में अन्वेषक के पद तक पहुँचे और अपना जीवन अपने संयुक्त परिवार की सेवा में समर्पित कर दिया । इस संघर्ष ने उन्हें कुछ तल्खियां तो दीं मगर दादा नरेंद्र श्रीवास्तव इससे टूटे नहीं बल्कि और मजबूत हुए । अपनी स्थितियों को किसी से न छुपाते हुए उसे गीत बनाकर कुछ इस तरह गा लिया –

कुछ भी नहीं है पास में
जीने को जिंदगी
फिर भी तो रास आ गई
हमको ये जिंदगी

नफरत के सिवा तुमसे और
कुछ तो नहीं मिला
फिर भी न शिकायत है
नहीं है कोई गिला
मुद्दत से चल रहा है अब तो
ये ही सिलसिला
जीने नहीं देते हैं जो
उनको भी बंदगी

गीतकार नरेंद्र श्रीवास्तव ने 1958 से लगातार लिखना शुरू किया और अपनी विशिष्ट शैली से मंचों पर अपना एक विशेष स्थान बना लिया । उनकी सुरीली और हल्की थरथराती आवाज रेडियो सीलोन जैसी कम ज्यादा होती रहती और लोग सम्मोहित होते रहते । यह हिन्दी साहित्य जगत में लगभग उत्तर छायावाद और प्रगतिवाद के बीच का समय था जब नवगीत धारा की शुरुआत हो चुकी थी । वे इन दोनों छोरों के बीच अपनी रचनाशीलता का एक अलग ही मुहावरा तैयार कर रहे थे । अकलतरा के अपने पहले कवि सम्मलेन की याद करते हुए दादा बताते हैं कि नवगीत विधा के प्रवर्तक वाराणसी के डाॅ.शंभूनाथ सिंह की अध्यक्षता में बालकवि बैरागी , देवराज दिनेश , काका हाथरसी तथा प्रभा ठाकुर की मंच पर उपस्थिति के बीच जब उन्होंने अपना एक गीत पढ़ा तो हर्ष के अतिरेक में अपने अध्यक्षीय आसंदी से उठकर शंभूनाथ सिंह जी ने उन्हें मंच पर दोनों बाहों में उठा कर घुमाया और फिर माइक के सामने लाकर उन्हें खड़ा कर दिया। यह गीत सचमुच बेजोड़ है-

मेरी आँखों में आसमान मेरे अंतस में सागर है
दुख आता है सह लेता हूँ, चुपचाप जिये जाता हूँ मैं

बौनापन किसी धरातल का तो बुरी तरह खल जाता है
हर भीड़ भरे चौराहे पर सूनापन ही छल जाता है
हर एक मोड़ अपने पर ही टूटा जर्जर विश्वास लिए
पहले कुछ साँसें गिनता है , फिर धीरे से ढल जाता है
टूटे नक्षत्र मुझे लगते बीमार दिशाओं के आँसू
आमंत्रण तो हर विघटन का स्वीकार किए जाता हूँ मैं

लेखक-सतीशकुमार सिंह

इस मधुर गीतकार की यह भी खासियत रही कि अपने गीतों में प्रतिरोध के स्वर को कभी इन्होंने मंद पड़ने नहीं दिया । यह वह दौर था जब राजनीतिक मोहभंग और उथल पुथल के बीच जनता के दुख दर्द की अनवरत अवहेलना की जा रही थी । सब तरह की सुविधा संसाधन के होते हुए भी आम आदमी को उसका अधिकार नहीं मिल पा रहा था । भूख और गरीबी से दबे कुचले लोग कराह रहे थे । गीतकार नरेंद्र श्रीवास्तव भला इस स्थिति की अनदेखी कैसे करते । उन्होंने लिखा –

हाथों पर गंगाजल है , फिर भी प्यास नहीं जाती
दिन की बातें कहने में , रात बेचारी शरमाती

गुजर चुका है सर से पानी
की हमने इतनी नादानी
नदी किनारे रोपा बचपन
अलगाया लहरों से पानी

तंगहालों की बस्ती में कोई राह नहीं जाती
दिन की बातें कहने में रात बेचारी शरमाती

कवि का सत्य और जीवन का सत्य अलग नहीं होता । अगर वह फैंटेसी रचते हुए कल्पनालोक में ही विचरण कर रहा है तो उसका कवि धर्म निश्चय ही संदिग्ध है । यथार्थबोध के साथ कल्पना का सामंजस्य बनाने और प्रतीकों तथा विम्बों में बात कहने की कला को कोई इस गीतकार से सीखे । अपने एक गीत में सामयिक विसंगतियों पर करारा चोट करते हुए नरेंद्र श्रीवास्तव लिखते हैं –

बादल भिंचे रहे बाहों में , दिल न हिला बरसात का
धरती ने सौ जतन किये और पिया पसीना रात का

चंदा टूटी चूड़ी जैसा सहमा रहा रात सारी
भारी पांव गर्भिणी पुरवा , लौट गई थी लाचारी
बिन बरसा बादल लगता है कब्र गगन के मरघट में
बिना भोग जैसे तप कोई घुट घुट जिये उमर सारी

अर्थी फूल पा गई लेकिन कुछ न बना बारात का

यह छत्तीसगढ़ ही क्या हिंदी जगत का दुर्भाग्य रहा है कि जिन्होंने साहित्य में जड़ जमाए बैठे मठाधीशों के चरण नहीं पकड़े उन्हें लगातार षड्यंत्र के तहत हाशिए पर धकेला गया वर्ना इतना बड़ा गीत सर्जक हिन्दी के नामचीन आलोचकों की नजरों से भला कैसे ओझल रहता । आज इन मठों को उनकी इन्हीं कारगुजारियों के चलते तोड़ने का उपक्रम नई पीढ़ी के सजग रचनाकार और युवा आलोचक कर रहे हैं जो एक तरह से शुभ संकेत है । ऐसा नहीं है कि दादा नरेंद्र श्रीवास्तव अपने दौर की पत्र पत्रिकाओं में नहीं छपे । उनकी रचनाएं धर्मयुग , साप्ताहिक हिंदुस्तान, नई कहानियां , आदर्श , रेखा , नई धारा पत्रिकाओं के साथ साथ , नागपुर टाइम्स , नई दुनिया , नवभारत , सन्मार्ग, सारथी आदि प्रतिष्ठित अखबारों में भी छपती रहीं । 1966 – 67 के आसपास जब प्रख्यात गीतकार वीरेंद्र मिश्र एक कवि सम्मेलन में भाटापारा आए तो उन्होंने नरेंद्र श्रीवास्तव के गीतों से प्रभावित होकर उनसे दो गीत अपने संपादन में प्रकाशित होने जा रहे ” अर्धशती के गीत ” संकलन के लिए मांगा और उन्हें इस संकलन में अपनी टिप्पणी के साथ ससम्मान शामिल किया । बालस्वरूप राही , रामावतार त्यागी , रामावतार चेतन आदि प्रभृत गीतकारों के साथ भी उनके अनेक गीत कई संकलनों में संकलित किए गए । अपने लेखन के प्रारंभिक वर्षों में नरेंद्र श्रीवास्तव ने कुछ बेजोड़ कहानियां भी लिखीं जो उस समय की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं । सोने की ईंटें , मैं बाघिन हूँ , खून और खूनें उनकी बहुचर्चित कहानियां में से रहीं हैं ।उन्हें अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से भी नवाजा गया जिनमें 1971 में “रेखा” मासिक पत्रिका (नागपुर) में हुए कहानी प्रतियोगिता में पहली बार टाइम्स रिस्ट वाॅच उन्हें प्राप्त हुआ । उनकी एक कहानी ” कोशिशें जारी रहे ” पर भी पुरस्कार मिला। तीसरा पुरस्कार ” आदर्श ” मासिक पत्रिका 64 पथरिया घाट स्ट्रीट , कोलकाता द्वारा उनकी कहानी ” दीवारें ” पर दिया गया । उस समय लखनऊ से प्रकाशित ” पांचजन्य ” में प्रकाशित उनकी कहानी ” ऐतिहासिक ” के लिए भी नरेंद्र श्रीवास्तव को पुरस्कृत किया गया। वे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी के द्वारा संपादित ” सत्रह कहानियां ” के कहानीकारों में से एक रहे हैं । 2003 में माधवराव सप्रे सम्मान , 2009 में डाॅ. प्रमोद वर्मा सम्मान भी गीत कवि नरेंद्र श्रीवास्तव को दिया गया । हाल ही में उन्हें मायाराम सुरजन फाउंडेशन की ओर से लोक चेतना अलंकरण प्रदान करने की घोषणा की गई है। वे इन उपलब्धियों के बावजूद कभी किसी वाद या विचार के झमेले में नहीं पड़े बस लिखते रहे और अपनी आने वाली पीढ़ियों को साहित्य के क्षेत्र में संस्कारित करते रहे।

यह बेजोड़ गीतकार 17 जनवरी 2019 को अस्सी वर्ष की अवस्था को पार कर हमेशा के लिए विदा हो गया । तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जीवटता के साथ साहित्य के प्रति समर्पित होकर कुछ न कुछ नया करने की तड़प लिए हुए वे अपने बेलौस अंदाज में गुनगुनाते हुए जीते रहे । हमारा सौभाग्य रहा है कि जहाँ हमें छायावाद के स्थापित कवि स्व. शेषनाथ शर्मा शील जैसे रचनात्मक पुरखों का सानिध्य लाभ मिला जिनके नाम पर हमारी रचना बिरादरी ने जांजगीर में ” शील साहित्य परिषद की स्थापना की वहीं उन्हीं की परंपरा के आगे की पीढ़ी के उत्तर छायावाद के गीत साधक दादा नरेंद्र श्रीवास्तव की उंगली पकड़कर हमने साहित्य का ककहरा सीखा । दादा नरेंद्र श्रीवास्तव उम्र भर सबको अपने अनुभव का लाभ देते हुए अपनी रचनाओं से हमेशा चेताते रहे । वे इस विकट समय की धुंध से पर्दा उठाते हुए अपनी एक रचना में कहते हैं –

जिंदगी यहाँ धुआँ ही धुआँ
देखके चलो अंधा कुआँ

जिनको दी कमान वे शिकारी हो गए
कुर्सी पाकर लोग अत्याचारी हो गए

कैसे कैसे हैं हमारे बागबां

पुराना काॅलेज के पीछे, जांजगीर
जिला – जांजगीर-चांपा ( छत्तीसगढ़ )
मोबाइल नंबर – 94252 31110

Spread the word