November 22, 2024

कविता@ लक्ष्मीकांत मुकुल

प्रस्तुति- सरिता सिंह

हरेक रंगों में दिखती हो तुम

1.
मदार के उजले फूलों की तरह
तुम आई हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन में
तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता
सूंघता रहता हूं तुम्हारी त्वचा से उठती गंध
तुम्हारे स्पर्श से उभरती चाहतों की कोमलता
तुम्हारी पनीली आंखों में छाया पोखरे का फैलाव
तुम्हारी आवाज की गूंज में चूते हैं मेरे अंदर के महुए
जब भी बहती है अप्रैल की सुबह में धीमी हवा
डुलती है चांदनी की हरी पत्तियां अपने धवल फूलों के साथ
मचलता हूं घड़ी दो घड़ी के लिए भी
बनी रहे हमारी सन्नीकटता
2.
बभनी पहाड़ी के माथे पर उगा
संजीवनी बूटी हूं मैं
जो तप रहा हूं मई के जलते अंगारों से
जीवित हूं यह उम्मीद लगाए
कि तुम आओगी बारिश की मेघ – मालाओं के साथ बस एक छुअन से हरा हो जाएंगे
झुलस चुके मेरी देह के रोवें
3.
चूल्हे की राख- सा नीला पड़ गया है मेरे मन का आकाश
तभी तुम झम से आती हो
जलकुंभी के नीले फूलों जैसी खिली- खिली
तुम्हें देखकर पिघलने लगते हैं
दुनिया की कठोरता से सिकुड़े
मेरे सपनों के हिमखंड
4.
शगुन की पीली साड़ी में लिपटी
तुम देखी थी पहली बार
जैसे बसंत बहार की टहनियों में भर गए हों फूल
सरसों के फूलों से छा गए हो खेत
भर गई हो बगिया लिली- पुष्पों से
कनेर की लचकती डालियां डुल रही हों धीमी
तुम्हें देखकर पीला रंग उतरता गया
आंखों के सहारे मेरी आत्मा के गहवर में
समय के इस मोड़ पर नदी किनारे खड़ा एक जड़ वृक्ष हूं मैं
तुम कुदरुन की लताओं- सी चढ़ गई हो पुलुई पात पर
हवा के झोंकों से गतिमान है तुम्हारे अंग – प्रत्यंग
तुम्हारे स्पर्श से थिरकता है मेरा निष्कलुश उदवेग
5.
दीए की मद्धिम लौ में पारा
काजल लगाती हो जब आंखों की बरौनीओं में
काले रंग से चमक जाता है तुम्हारा चेहरा
जिसके बीच जोहता हूं मीठे सपने
आशंकाओं के घने अंधकार में भी
दिख जाती है फांक भर मुझे रोशनी की लकीरें
जिसके सहारे निर्विघ्न चल देता हूं जिंदगी की हर जंग में
6.
भोर का उगता सूरज
गुलाब की खुलती पंखुड़ियां
स्थिर हो गई हैं तुम्हारे होठों की लाली पर
जिसके आगे फीके हैं अबीर – गुलाल के रंग
चकाचौंध से भरे बाजार की नकली उत्पादों के बरअक्स
हमने अपने हिस्से में बचा कर रखी है
यह अद्भुत नैसर्गिकता !
7.
इंद्रधनुष के रंग युग्मों -सी
घुल गई हो तुम मेरे संग
आंचल की किनारी से चलाती हो जब
सहलाती हो जब मेरे टभकते घावों को
घिर आता हूं मीठे सपनों की
बारिश की झड़ी में…!

——————-

टिप्पणी

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताई पर अग्रज कवि विजय सिंह ने बहुत विस्तार से लिखा है । उन्होंने उनकी रचनात्मकता के सरोकार पर उनकी पंक्तियों के साथ जनपदीय रचनाओं की व्याप्ति पर खुलकर चर्चा भी की है । मुकुल अपने स्वभाव के अनुरूप अपनी कविताओं में किसान जीवन की अनुभूतियों को पिरोने में समर्थ रचनाकार हैं वहीं उनकी प्रेम की अभिव्यक्ति भी लोक संवेदना से जुड़ी हुई आती हैं-
चूल्हे की राख – सा नीला पड़ गया है / मेरे मन का आकाश / तभी तुम झम से आती हो / जलकुंभी के नीले फूलों जैसी खिली – खिली/ तुम्हें देखकर पिघलने लगते हैं/ दुनिया की कठोरता से सिकुड़े /मेरे सपनों के हिमखंड

वे अपनी कविताओं में समयानुकूल हस्तक्षेप भी करते हैं और बोली – बानी के देसज शब्दों से सहजता के साथ संवाद करते हैं । उनका इतिहासबोध भी आंचलिकता से सराबोर है । बहुत-बहुत धन्यवाद सरिता सिंह जी को आज की इस विशिष्ट प्रस्तुति के लिए। मुकुल जी को बधाई ।

सतीश कुमार सिंह

Spread the word