September 17, 2024

सबक

बज उठी है-दुंदुभी
पाच बरस में
एक बार होने वाले
युद्ध की
वो लाव-लश्कर से
सुसज्जित हो
उतर आये हैं मैदान में
और तुम बैठे हो
अभी भी द्वार पर
बाट जोहते किसी नायक की.

हर बार,
बार-बार होता है यही
वो आता है,
अपनी पूरी फौज के साथ
उत्तेजक नारे लगाता,
अपना ऐश्वर्य दिखाता,
दुश्मनों पर भेडि़या सा गुर्राता
और तुम
उठ खड़े होते हो समर्थन में
करने लगते हो उसका अनुशरण,

चौंको नहीं,
खुद को कोसना भी मत
क्योंकि,
तुम अकेले नहीं ऐसे,
एकल संख्या से
नहीं खड़ी होती कोई फौज
और ना ही
जीता जा सकता है कोई युद्ध,
दरअसल जब तनी होती है शमशीरें
तो संख्या बल
होता है सर्वाधिक आवश्यक
यह उनका सौभाग्य नहीं,
तुम्हारा दुर्भाग्य है कि
भीड़ की नहीं होती कोई चेतना
और चुन लिया जाता है
एक ऐसा नायक,
जो युद्ध जीतने के बाद
भूल जाता है अपने सैनिकों को

बेचारे !
रणभूमि के योद्धा
अपनी क्षत-विक्षत देह के साथ
घर की देहरी पर बैठ
राह निहारते हैं अपने नायक की
वैसे ही
जैसे तुम बैठे हो अभी
पर, दोषी वे नहीं,
सत्ता का,
ऐसा ही होता है चरित्र
दोष तो तुम्हारा है,
जो, अपने अनुभव से भी
नहीं लेता कोई सीख

अब, एक बार फिर
बज उठी है-दुंदुभी
श्वेत घोड़ों को दौड़ाता
चमचमाते रथ पर आरूढ़
अभियान पर
निकल पड़ा है- नायक
कहीं तुम्हारी
अस्मिता को ललकारता
तो कहीं,
तुम्हारी पीड़ा को उभारता

सोचो,
क्या तुम फिर बह जाओगे
किसी लहर के साथ
या, इस बार
अपने अनुभव से लोगे कोई सबक.

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