सूत्र पटल@ सरिता सिंह
सरिता सिंह की कविताएं
+++++++++++++++
कविता लिखने के लिए धैर्य चाहिए और कविता की समझ के साथ कविता की महत्ता से भी आप को परिचित होना चाहिए कि कविता मात्र लिखने के लिए भी आप कवि नहीं हो जाते ….इस समय खासकर कोरोना समय में …फेसबुक ,वाट्सअप और इस तरह के माध्यम में कविता पाठ की भरमार है । कोई भी आनलाइन कविता पाठ से छूटना नहीं चाहता … एक तरह से रचना और कविता की बाढ़ सा मैं देख रहा हूँ … लेकिन इन सब में मैं कहीं भी कविता को कविता की तरह अनगढ़… जीवन – समय के लिए बेसब्र .. अपनी मिट्टी ,अपने आसपास से जूझने की ताकत देख नहीं पा रहा हूँ …
बहरहाल, ऐसे समय में कवयित्री सरिता सिंह बिना किसी शोर गुल के, प्रचार के, पत्रिका में छपते रहने की मोह से दूर कविता लिख रही हैं कविता – रचना और अपने समय के लिए बेसब्र रहती हैं , मुझे उनकी रचना – कविता के प्रति यह दृष्टि- जुड़ाव आश्वस्त करता है। आपने सरिता सिंह की कविताएं पढ़ी हैं आईये कुछ और कविताएं पढ़ते हैं ……..
दाना पानी ………………….
हर शय में मात करने की बात करते हो
उजालों में भी अंधेरों की बात करते हो
जो गाते हो उल्लास का गीत
बायां मुंह उसी की बयानबाजी करते हो
ना उड़ सके तो,
चिड़ियों के पंखों को काटने की बात करते हो
पैदल चलने का साहस जुटाकर
पहाड़ों को काटने की बात करते हो
अजब तमाशबीन है जमाना साथियों,
दौड़ते हुए को गिराना , खुशी की बात में शामिल करते हो
सूरज की रोशनी को समेटने का दावा कर
पूरी दुनिया को ठिकाने लगाने की बात करते हो
संभल जाओ ,कि कहीं पैर की मिट्टी ना खिसक जाए!
अदनी सी मिट्टी ,कहीं बड़ा कमाल ना दिखा जाए|
…………………………
समय की आवाज
.……………………
यह समय कहता है
चुप रहो
बिना बोले
सुनो
सदाओ को
सुनो
उन हवाओं को
जो सरसरा कर ठिठकती है
पत्थरों को तोड़कर सुनो उसकी आवाज
कितने ,
हौले से दरक रही है मिट्टी
चुग कर जाती चिड़िया
को देखो,
कैसे समेट ली है पंखो को
तितलियां कहा गई इन दिनों
आसमान भी पूछता है,
यह वह समय है
जब बात – बात पर
हिल उठते हैं वृक्ष
हां ये,
गुमसुम समय की आवाज है।
टिप्पणी
……………
कवयित्री सरिता सिंह जिस मुस्तैदी से अपने परिवेश को देख पाती हैं उसी चौकस निगाह से वे अपने समय की विभीषिका को भी भाँप लेती हैं । उनकी कविता संग्रह निकालने की आकांक्षा में कविता के वे सारे उपादान मौजूद हैं जिससे हमारे जीवन में राग और सौंदर्य खिलता है । स्त्री होने को वे केवल वैयक्तिक होकर नहीं देखतीं वरन एक सहस्त्र स्त्रियों का स्वर अपने भीतर साधने का उपक्रम करती हैं । इन छोटी छोटी कविताओं में जीवन तो है ही जीवन का आश्वासन भी प्रचुरता में हैं । उन्हें रचनात्मक बने रहने की बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं । विजय सिंह जी का धन्यवाद अपनी विशिष्ट टिप्पणी के साथ सरिता सिंह जी की रचनाओं को प्रस्तुत करने के लिए ।
सतीश कुमार सिंह
………………………
किसी कवि की विकास यात्रा को समझने के लिए उसकी कविताओं को पढ़ना जरूरी है और इससे भी ज्यादा जरूरी की वे अलग अलग समय में लिखी गयी हों।सरिता सिंह जी की कविताओं को 4-5 सालों से यदा कदा पढ़ता रहा हूँ और खुशी की बात है कि इनकी कविताएं निरंतर पक रही हैं।यह सहज और प्राकृतिक विकास है।कुछ कवि ऐसे होते हैं जिनकी शुरुआती दिनों की कविताएं पकी होती हैं और उसके बाद उनकी विकासयात्रा खत्म हो जाती है।ऐसे कवि उन्हीं कविताओं को अलग अलग तरीके से पकाते हैं पर एक बार पकी हुई चीज पुनः नहीं पकती,वह सड़ती है।ऐसे ढेरों उदाहरण हम देखते हैं लेकिन आज का समय है-मुर्दे को क्या गरज़ कफ़न फाड़ कर निकले,सो हम अपने काम में लगे रहते हैं।कोतरी मछली,कविता संग्रह शीर्षक कविताओं के आधार पर इन बातों को कह पा रहा हूँ।सरिता जी दिल्ली से ही नहीं भोपाल से भी दूर हैं जहां रणनीतियां बनती हैं कि किसे महान बनाना है,किसे आसान बनाना है लेकिन यह सुखबर है कि हिंदी में दिल्ली का करिश्मा यमुना के पानी में सड़ रहा है उसी तरह भोपाल,इलाहाबाद,पटना का हाल है।अब किसी से कोई सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं ।इस बार मेरी किताब आई तो चाय वाले,खैनी वाले,मजदूर,स्कूली बच्चों ने उसका विमोचन किया और पहली बार मुझे बहुत खुशी मिली।सरिता सिंह की कविताई में अच्छा है वर्तमान कविता के मार्केटिंग की भाषा-शैली नहीं है यही इन्हें जमीन से जोड़ता है और इनकी कविताओं को मार्केट की कविताई से अलहदा करता है।
अनेकशः बधाई🍁
उन्हें
राजकिशोर राजन