September 20, 2024

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर

26 फरवरी 2022

भारत की वर्तमान वैदेशिक नीति की होगी अग्नि परीक्षा

  -डॉ. दीपक पाचपोर

रूस और यूक्रेन के बीच छिड़े युद्ध से मौजूदा भारतीय जनता पार्टी प्रणीत विदेश नीति की एक बार फिर से अग्नि परीक्षा हो रही है। देश आधारित या सिद्धांतों पर चलने वाली विदेश नीति को त्यागकर व्यक्ति आधारित वैदेशिक नीति गढ़ने और उस पर चलने का नतीजा आज इस मायने में हमारे सामने है कि भारत एक बार फिर से किंकर्तव्यविमूढ़ नज़र आ रहा है। इसके पहले भी इजरायल-फिलीस्तीन संकट एवं अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन के वक्त पर भी भारत की वह स्वतंत्र एवं दमदार आवाज गुम रही जो उसने आजाद भारत के प्रारम्भिक वर्षों में गुटनिरपेक्ष नीति (नॉन एलाइन मूवमेंट) के रूप में बनाई थी। दो सदियों की औपनिवेशिक गुलामी के बाद भी जब भारत इस नीति का रचयिता बना तो वह देखते ही देखते इसके जरिये 146 देशों के विशाल कुनबे का सिरमौर बन गया था। इस नीति का लगभग सभी प्रधानमंत्रियों एवं परवर्ती सरकारों ने अनुसरण किया जिससे भारत की सभी देशों में लोकप्रियता बरकरार रही। अनेक संकटों में इस नीति ने देश को उन अंतर्राष्ट्रीय झंझावातों से अलग रखा जो हमें महाशक्तियों का गुलाम बना सकते थे।

प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नासेर एवं यूगोस्लावी राष्ट्रपति जोसिप ब्राज़ टीटो के साथ इसकी नींव रखी थी। इसका निर्माण एवं गठन दूसरे महासमर के बाद अमेरिका व तत्कालीन सोवियत संघ के बीच छिड़े शीत युद्ध के दौरान हुआ था जो कि प्रत्यक्ष युद्ध से भी ज्यादा भयावह था। विभिन्न देशों को अपने-अपने खेमे में शामिल करने के लिये पूरी दुनिया को इन दो ताकतवर देशों ने दो ध्रुवों में बांट दिया था। हर देश में अपने इशारे पर चलने वाली सरकार बनाने की होड़ थी। किसी भी, खासकर गरीब व विकासशील देशों की सरकारें हमेशा तख्तापलट की आशंका से घिरी रहती थीं। कठपुतली सरकार बनाने के उद्देश्य से अनेक देशों में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकारें इस या उस महाशक्ति द्वारा गिराई गयीं और राष्ट्राध्यक्षों की हत्याएं तक हुईं। इसके पीछे वैचारिक एवं आर्थिक कारण दोनों ही थे। दो महायुद्धों से विपन्न हो गये शक्तिशाली देशों को दुनिया भर में अपने व्यवसायों के लिये बाजार चाहिये थे। इसके लिये वैचारिक दर्शन के नाम पर अलग-अलग देशों को अपने गुट में लाया जाने लगा। एक ओर अमेरिका पूरी दुनिया में पूंजीवादी विचारों का अगुवा था जिसे पश्चिमी देश मदद कर रहे थे तो दूसरा खेमा सोवियत संघ का था जो हिटलर को पराजित कर दुनिया की एक बड़ी ताकत बन गया था। इसलिये नेहरू पर दोनों ताकतें डोरे डालती रहीं। उल्टे, एनएएम (नाम) ने सोवियत खेमे के यूगोस्लाविया को अपने पक्ष में तोड़ लिया। वैसे तो नेहरू का रूझान यूरोपीय समाजवाद की ओर था लेकिन उन्होंने किसी भी खेमे का सदस्य बनने से यह कहकर इन्कार किया कि “हमें देश के पुनर्निमाण के लिये पूरी दुनिया की मदद चाहिये रहेगी। इसलिये भारत के लिये गुटनिरपेक्षता की नीति ही बेहतर है।” बाद में अनेक घटनाक्रमों में साबित हुआ कि तटस्थता का अर्थ दुनिया से कट जाना नहीं है वरन शक्तिहीन देशों की सम्प्रभुता व लोकतंत्र की रक्षा करने, विश्व बंधुत्व, अंतर्राष्ट्रीय साहचर्य व परस्पर सहयोग बढ़ाने और विश्व की दुश्वारियां समाप्त करने की दिशा में स्वतंत्र आवाज उठाना है। जहां भी शांति एवं मानवता को खतरा दिखा, भारत का स्वर बुलन्द हुआ और सारी दुनिया ने उसे ध्यान से सुना। दुनिया जान गयी कि गुटनिरपेक्षता आंदोलन कितना शक्तिशाली है जिसके पीछे करीब डेढ़ सौ देशों की शक्ति काम कर रही है। एशिया, अफ्रीका, लातिनी अमेरिका के वे देश, जिसे तीसरी दुनिया कहा जाता है, वे इसके भागीदार थे और विकास के लिये उनके पक्ष में बात करने के लिये भारत की ओर देखते थे। भारत ने उन्हें कभी भी निराश नहीं किया। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि चाहे यह नीति तीन लोगों ने बनाई थी पर सिरमौर नेहरू ही थे। उन्हें यह ताकत और स्वीकार्यता स्वतंत्रता आंदोलन के पूर्व उनके द्वारा वैश्विक समर्थन पाने के लिये दुनिया भर के नेताओं से सम्पर्क करना भी था। तभी नेहरू देश के पीएम बनने के साथ ही एक ‘स्टेट्समैन’ के रूप में भी सत्तानशीं हुए थे। महाशक्तियों ने जल्दी ही जान लिया था कि नेहरू ने उन्हें नकार कर खुद का एक बड़ा गुट बना लिया है जिसका आकार उनके प्रभाव क्षेत्रों से कहीं बड़ा है। फिर, तटस्थ राष्ट्रों के तहत ही विकास के लिये आवश्यक सभी संसाधन तथा अवसर उपलब्ध हैं। इसलिये दोनों ही खेमों द्वारा भारत को तमाम तरह की सहायता दी गयी। यहां कल-कारखाने लगाने से लेकर कारोबार करने और हमारे बच्चों को ऊंची शिक्षा-दीक्षा के द्वार दोनों ही खेमों के सदस्य देशों द्वारा खोले गये।

समय के साथ इस नीति की उपादेयता और उपयोगिता साबित होती रही। हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की जुर्रत न कभी अमेरिका को हुई और न ही पूर्ववर्ती सोवियत संघ या वर्तमान रूस को। इस नीति की सफलता के कारण ही नेहरू के बाद प्रमं बनीं इंदिरा गांधी से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक ने इसे ज्यों का त्यों अपनाया। यहां तक कि गैर कांग्रेसी या कांग्रेस समर्थित अथवा गठबंधनों से बने प्रधानमंत्रियों (मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, वीपी सिंह, चौधरी चरण सिंह चन्द्रशेखर, आईके गुजराल एचडी देवेगौड़ा आदि) ने भी इसी नीति पर चलना श्रेयस्कर समझा। इसमें टर्निंग प्वाईंट आया 2014 में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार की स्थापना के साथ। यह सरकार अपने इस विश्वास एवं मतदाताओं की इस मानसिकता के साथ सत्ता में आई कि पिछले 60 वर्षों में कुछ भी नहीं हुआ है और अगर कुछ हुआ है तो वह गलत हुआ है। अपने कांग्रेस मुक्त एजेंडे के तहत मोदी सरकार ने पिछली सरकारों की सारी नीतियों को ताक पर रख दिया जिसका शिकार समय पर खरी उतरी हमारी विदेश नीति भी रही। तटस्थता को कायरता माना गया और शांति व मानवता के सदा से पक्षधर भारत की भाषा में ‘घर में घुसकर मारने’ तथा ‘लाल आंखें दिखाने’ जैसी बातें होने लगीं। इसके कारण जहां एक ओर हमारे पड़ोसी हमसे बिदकने व हमारे खिलाफ लामबन्द होने लगे वहीं भारत को अब बड़े देशों का पिछलग्गू बनने में मजा आ रहा है। उसे विकास का यही जरिया उपयुक्त लगता है जिसमें बड़े देश अपना पैसा भारत के उद्योगों व कारोबारों में लगायें और यहां स्थित अपने निकटवर्ती व सहयोगी व्यवसायियों को मालामाल करें। मानवीय पक्षों की तिलांजलि देकर अब हमारी विदेश नीति केवल हथियार खरीदी, सरकार व पार्टी समर्थित व्यवसायियों को लाभान्वित करने एवं विदेशी निवेश का महामार्ग तैयार करने तक सीमित है। अब दुनिया में होने वाली मानवीय आपदाओं पर अमीर व शक्तिशाली मुल्कों के खिलाफ वह आवाज नहीं उठा पाता। वह न तो पड़ोसी अफगानिस्तान में होने वाले खून-खराबे पर कुछ बोल पाता है और न इजरायल के खिलाफ फिलीस्तीन के पक्ष में बोलता है। तटस्थता का अर्थ चुप रहना या सिर्फ व्यवसाय केन्द्रित रहना नहीं है। वह दुनिया में जहां-जहां भी मानवीयता पीड़ित, लाचार एवं घायल होगी वहां हिंसा व अन्याय के खिलाफ खड़ा होना भी है क्योंकि हमारी विदेश नीति का आधार हमारे देश का पांच सहस्त्र वर्ष पुराना दर्शन है, यहां की सहिष्णुता है, बन्धुत्व की भावना है। आखिरकार इस देश की पहचान बुद्ध, महावीर एवं गांधी से है। नेहरू के प्रति दुर्भावना से पीड़ित व अविवेकपूर्ण विदेश नीति का कभी व्यक्तिगत छवि तो कभी धर्म से जुड़ना इस दौर का दुर्भाग्य भी है।

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383

Spread the word