July 4, 2024

लेनिन नहीं, गांधी की बात करती हैं स्वेतलाना

डॉ. सुधीर सक्सेना

वे पिछले करीब सवा साल से बर्लिन में हैं। अपने देश बेलारूस से निर्वासित। और यह पहला मौका नहीं है कि वे अपने वतन, जिससे वह बेपनाह मोहब्बत करती हैं, से मीलों दूर हैं। बेलारूस उनकी स्मृति में है और स्वप्न में भी। बेलारूस उन्होंने इसलिए छोड़ा, क्योंकि उनकी जान पर बन आई थी। 28 सितंबर, सन् 2020 को डबडबाई आंखों से उन्होंने मिंस्क छोड़ा था। खूंखार सुरक्षा दस्ते उनके पीछे पड़े थे। अगर पोलैंड, रोमानिया, चेक गणराज्य, लिथुआनिया, स्वीडन और स्लोवाकिया के राजनयिकों की निगरानी और सतर्कता न होती तो उनका बच निकलना मुश्किल था। बहुत मुमकिन है कि वह जेल की सलाखों के पीछे होतीं अथवा तन्हाई में नजरबन्द।
पूरा नाम स्वेतलाना अलेक्सियेविच। पेशा पत्रकारिता। शौक लेखन। पहचान सच की निर्भीक अभिव्यक्ति। आयु संप्रति 73 वर्ष। पिता बेलारूसी। मां यूक्रेनी। परिवार में चार पीढ़ियों से अध्यापन की अटूट परंपरा। मिंस्क से स्नातक। अखबारों में नौकरी। अनेक किताबें प्रकाशित। सखारोव प्राइज समेत अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान। सन् 2015 में साहित्य के लिए प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार से सम्मानित। सत्ता की नजरों में अपराध: सत्य की निर्भीक अभिव्यक्ति।
31 मई, सन् 1948 को स्तानिस्लाव (अब इवानोफ्रैकीव्स्क) में जनमी स्वेतलाना साहित्रकारिता के वैश्विक परिदृश्य में स्थान रखती हैं। वह पहली बेलारूसी हैं, जिसे साहित्य के लिए नोबेल से नवाजा गया। वे सोवियत व उत्तर-सोवियत काल के इतिहास के ‘जीवंत’ चित्रण के लिए जानी जाती हैं। वह शब्दों की लड़ियों से दस्तावेज बुनती हैं, इतिहास के सच्चे और प्रामाणिक दस्तावेज। लगभग चार दशकों के अंतराल में उनकी पांच किताबों ने उन्हें साहित्य और पत्रकारिता में शीर्ष पायदान पर पहुंचा दिया है, अलबत्ता उनके साथ सलूक लगभग वैसा ही हुआ, जैसा ब्रोदस्की, बूनिन या पास्तरनाक के साथ हुआ था। यही वजह है कि वह बरबस ‘डॉक्टर जिवागो’ के बरीस पास्तरनाक और ‘गुलाग आर्किपेलागो’ के अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन की कतार में नजर आती हैं। सोवियत, पोस्ट-सोवियत, रूस-अफगान युद्ध और चेर्नोबिल त्रासदी को उन्होंने कथानक बनाया है, लेकिन वह दंतकथाओं के बजाय दंश कथाओं पर यकीन करती हैं। कच्चे माल के लिए वह चश्मदीदों और भुक्तभोगियों के पास जाती हैं। रूसियों और यूक्रेनियों में झड़पों का ‘आंखिन देखा’ सच उनके पास है। सच में गहरी निष्ठा और अखोट प्रामाणिकता के वास्ते वह काबुल जाती हैं और लड़ाकों, नर्सों, पायलटों, अनाथ बच्चों, विधवा स्त्रियों और भग्न हृदय मांओं और शरणार्थियों से मिलती हैं। वे ईमानदार लेखन की शर्त को जान हथेली पर रखकर पूरा करती हैं। इसी के चलते वह 26 अप्रैल, 1986 को चेर्नोबिल पहुंच गयी थीं। गौरतलब है कि चेर्नोबिल परमाणु संयंत्र में हादसे के फलस्वरूप रेडियोधर्मिता का 70 फीसद असर बेलारूस में हुआ था। उन्होंने कहा था, रेडियोधर्मिता को आप देख नहीं सकते। इसे आप सूंघ नहीं सकते, लेकिन इसका असर सदियों तक रहेगा।
व्यवस्था से स्वेतलाना का रिश्ता शुरू से तल्ख रहा है। उनकी रचनाओं का छपना सन् 80 के दशक में सोवियत संघ में मिखाइल गोर्बाचोव के सत्ता में आने के बाद शुरू हुआ। ग्लासनोस्त ने उनके लिए प्रकाशन के द्वार खोले। उनकी सन् 85 में आई ‘ऊ वयनी निझेंस्कोये लित्सो’ (युद्ध का गैरजनाना चेहरा) की 20 लाख प्रतियां बिकीं। प्रकाशन के पूर्व यह दस्तावेजी कृति ‘अक्च्याब्र’ (अक्तूबर) में धारावाहिक छपी। अफगान युद्ध पर एकाग्र उनकी कृति ‘ब्वॉयज इन जिंक’ अत्यंत चर्चित रही। रूस के इतिहास के सोवियत और पोस्ट सोवियत दौर को उन्होंने ‘मास ग्रेव’ और ‘ब्लड बाथ’ से जोड़ा। जाहिर है कि सत्ता को यह पसंद नहीं आया और वह रूस और स्वाभाविक तौर पर बाद में बेलारूस की भी सरकारों की आंखों की किरकिरी बन गयीं। प्रसंगवश बताना दिलचस्प है कि जब उन्हें नोबेल पुरस्कार देना तय हुआ, तो मिंस्क में उनके अपार्टमेंट में फोन लगातार घनघनाता रहा। फ्रांस और जर्मनी के राष्ट्रपतियों का फोन आया। मिखाइल गोर्बाचोव ने फोन किया। बधाई… बधाई… बधाई…, लेकिन बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्सांद्र लूकाशेंको को रस्म अदायगी भी गवारा न हुई। जबकि बेलारूस के लिए यह अपूर्व हर्ष और गौरव का ऐतिहासिक क्षण था। दिलचस्प तौर पर रूस के राष्ट्रपति और लूकाशेंकों के सखा व्लादिमीर पुतिन ने भी फोन नहीं किया। लूका ने शाम को टीवी पर रस्मी बधाई तो दी लेकिन मतदान होने की देर थी कि दो दिन बाद तोहमत जड़ दी।
लूकाशेंको को स्वेतलाना की कलम नापसंद है तो स्वेतलाना को लूका के आचार-विचार से चिढ़ है। स्वेता लूका और पुतिन को एक खाने में वर्गीकृत करती हैं। उनकी नजर में लूका योरोप का अंतिम तानाशाह है। वह स्वेच्छाचारी है। वह सन् 1994 में बेलारूस के मानचित्र में उभरने के बाद से लगातार राष्ट्रपति है। बेलारूस एकमात्र योरोपीय राष्ट्र है, जहां मृत्युदण्ड प्रचलन में है। मानवाधिकारों का सूचकांक लगातार गिर रहा है। लगातार छह बार निर्वाचित राष्ट्रपति लूकाशेंको की ‘शैली’ का अनुमान इससे लग सकता है कि सन् 2004 में उसे 80 फीसद से ज्यादा वोट मिले। विपक्षी नेता अलेक्सांद्र कजूलिन पीटे गये और गिरफ्तार हुए। अगले चुनाव में आंद्रेई सन्निकोव जिन्हें तीन फीसद वोट मिलने की बात कही गयी को भी बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। विपक्ष की नेत्री स्वेतलाना तिखानोव्स्काया निर्वासन की शिकार हुईं। सन् 2020-21 में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हुए। हजारों लोग सड़कों पर उतरे। इस दौर में लूका ने तीन काम किये। बकौल स्वेतलाना, किल्ड, फायर्ड एण्ड अरेस्टेड। लिहाजा जीवन पहले से अधिक खौफजदा हो गया है। गत वर्ष मई में बेलारूस के जेट ने एथेंस-विल्नियस उड़ान को बलात मिंस्क उतरने को बाध्य किया और विमान यात्री पत्रकार रोमन प्रोतासेविच को बंदी बनाकर विमान को आगे जाने दिया। गौरतलब है कि लगभग एक करोड़ आबादी का बेलारूस सन् 1997 से योरोपीय कौंसिल से निष्कासित है और मिंस्क में सन् 2007 से अमेरिका का राजदूत नहीं है। अमेरिका-योरोप की अनेक पाबंदियां झेल रहे लूकाशेंको के रूस व सीरिया से अच्छे रिश्ते हैं और वे अक्टूबर, 2005 में बीजिंग हो आये हैं।
सदी के प्रारंभ में 12 वर्ष निर्वासन में रहने के बाद स्वेतलाना फिर जलावतन हैं। लेकिन वह घर लौटने को बेताब हैं। वह कहती हैं-‘‘ मैं जर्मनी को प्रेम करती हूं और उसकी कृतज्ञ हूं, लेकिन मेरी ख्वाहिश है कि बेलारूस में रहूं। घर मायने रखता है।’’ लूकाशेंको को लेकर वह बहुत मुखर और तल्ख हैं। वह कहती हैं-‘‘लूका सोवियत युग का कस्टोडियन है। पुतिन और लूका का खयाल है कि वे मसीहा हैं, जबकि वे घोर तानाशाह हैं। बेलारूस योरोप में तानाशाही का छोटा-सा अड्डा है।’’
बेलारूस में पाठ्यक्रमों से उनका नाम व किताब अब विलोपित हैं। स्वेता के शब्दों में, ‘हम दोयम समय में जी रहे हैं। समय भयाक्रांत है। आशा को भय ने विस्थापित कर दिया है। लूका समय को कितना भी रोकने की चेष्टा करे, उसे जाना होगा। लोगों का ‘मनस’ बदल रहा है। वे जाग रहे हैं। शर्म की बात यह है कि आजादी की राह लंबी है।’’
जन आंदोलन की हिमायती स्वेतलाना शांति और अहिंसा की पक्षधर हैं। वह जन-नेत्री मारिया कोलोस्निकोवा की इस बात के लिए तारीफ करती हैं कि उसने गत ग्रीष्म में हजारों की भीड़ को राष्ट्रपति आवास के समीप साहसपूर्वक रोक लिया, अन्यथा रक्तपात हो सकता था। उनकी धारणा है कि रक्तपात या हिंसा हुई तो आंदोलन नैतिक शक्ति खो देगा। विवेक और अहिंसा के बूते आंदोलन इस मोड़ तक पहुंचा है। यह पराजय नहीं, ‘हाल्ट’ है। चूंकि, जनमत हमारे साथ है, लिहाजा मिंस्क में थ्येनआनमन दोहराया नहीं जा सकता।
पश्चिम बर्लिन में लेक वानसी के किनारे लिटेरीशे कोलोनियम में निर्वासित जीवन जी रही नोबेल विजेता कवयित्री ने हाल के इंटरव्यू में स्पष्ट कहा-‘मेरा लगाव गांधीवाद से ज्यादा है, लेनिन नहीं गांधी से। – तो क्या विश्व में मुक्ति का मंत्र सिर्फ गांधी के पास है!

( डॉ. सुधीर सक्सेना देश की बहुचर्चित मासिक पत्रिका ” दुनिया इन दिनों” के सम्पादक, देश के विख्यात पत्रकार और हिन्दी के लोकप्रिय कवि- साहित्यकार हैं। )

@ डॉ. सुधीर सक्सेना, सम्पर्क- 09711123909

Spread the word