November 7, 2024
प्रस्तुति- सतीश सिंह

आजाद हिन्दुस्तान का आह्वान

कर रहा हूँ आज मैं आज़ाद हिंदुस्तान का आह्वान!

है भरा हर एक दिल में आज बापू के लिए सम्मान,
हैं छिड़े हर एक दर पर क्रान्ति वीरों के अमर आख्यान,
हैं उठे हर एक दर पर देश-गौरव के तिरंग निशान,
गूँजता हर एक कण में आज वंदे मातरम का गान,
हो गया है आज मेरे राष्ट्र का सौभाग्य स्वर्ण-विहान;
कर रहा हूँ आज मैं आज़ाद हिंदुस्तान का आह्वान!

याद वे, जिनकी जवानी खा गई थी जेल की दीवार,
याद, जिनकी गर्दनों ने फाँसियों से था किया खिलवार,
याद, जिनके रक्त से रंगी गई संगीन की खर धार,
याद, जिनकी छातियों ने गोलियों की थी सही बौछार,
याद करते आज ये बलिदान हमको दुख नहीं, अभिमान,
है हमारी जीत आज़ादी, नहीं इंग्लैंड का वरदान;
कर रहा हूँ आज मैं आज़ाद हिंदुस्तान का आह्वान!

उन विरोधी शक्तियों की आज भी तो चल रही है चाल,
यह उन्हीं की है लगाई, उठ रही जो घर-नगर से ज्वाल,
काटता उनके करों से एक भाई दूसरे का भाल,
आज उनके मंत्र से है बन गया इंसान पशु विकराल,
किन्तु हम स्वाधीनता के पंथ-संकट से नहीं अनजान,
जन्म नूतन जाति, नूतन राष्ट्र का होता नहीं आसान;
कर रहा हूँ आज मैं आजाद हिंदुस्तान का आह्वान!

जब बंधे थे पाँव तब भी हम रुके थे हार कर किस ठौर?
है मिटा पाया नहीं हमको ज़माने का समूचा दौर,
हम पहुँचना चाहते थे जिस जगह पर यह नहीं वह ठौर,
जिस लिए भारत जिया आदर्श वह कुछ और, वह कुछ और;
आज के दिन की महत्ता है कि बेड़ी से मिला है त्राण,
और ऊँची मंजिलों पर हम करेंगे आज से प्रस्थान,
कर रहा हूँ आज मैं आजाद हिंदुस्तान का आह्वान!

आज से आजाद रहने का तुझे है मिल गया अधिकार,
किंतु उसके साथ जिम्मेदारियों का शीश पर है भार,
दीप-झंडों के प्रदर्शन और जय-जयकार के दिन चार,
किंतु जाँचेगा तुझे फिर सौ समस्या से भरा संसार;
यह नहीं तेरा, जगत के सब गिरों का गर्वमय उत्थान,
आज तुझसे बद्ध सारे एशिया का, विश्व का कल्याण,
कर रहा हूँ आज मैं आजाद हिंदुस्तान का आह्वान!

. आज़ादों का गीत

हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सजतीं गुड़ियाँ,
इनसे आतंकित करने की बीत गई घड़ियाँ,

इनसे सज-धज बैठा करते
जो, हैं कठपुतले।
हमने तोड़ अभी फैंकी हैं
बेड़ी-हथकड़ियाँ;

परम्परा पुरखों की हमने
जाग्रत की फिर से,
उठा शीश पर हमने रक्खा
हिम किरीट उज्जवल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सज सिंहासन,
जो बैठा करते थे उनका
खत्म हुआ शासन,

उनका वह सामान अजायब-
घर की अब शोभा,
उनका वह इतिहास महज
इतिहासों का वर्णन;

नहीं जिसे छू कभी सकेंगे
शाह लुटेरे भी,
तख़्त हमारा भारत माँ की
गोदी का शाद्वल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

चांदी, सोने, हीरे, मोती
से सजवा छाते
जो अपने सिर पर तनवाते
थे, अब शरमाते,

फूल-कली बरसाने वाली
दूर गई दुनिया,
वज्रों के वाहन अम्बर में,
निर्भय घहराते,

इन्द्रायुध भी एक बार जो
हिम्मत से औड़े,
छ्त्र हमारा निर्मित करते
साठ कोटि करतल।
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

चांदी, सोने, हीरे, मोती
का हाथों में दंड,
चिन्ह कभी का अधिकारों का
अब केवल पाखंड,

समझ गई अब सारी जगती
क्या सिंगार, क्या सत्य,
कर्मठ हाथों के अन्दर ही
बसता तेज प्रचंड;

जिधर उठेगा महा सृष्टि
होगी या महा प्रलय,
विकल हमारे राज दंड में
साठ कोटि भुजबल!
हम ऐसे आज़ाद, हमारा
झंडा है बादल!

. खोया दीपक

सुभाष बोस के प्रति

जीवन का दिन बीत चुका था,
छाई थी जीवन की रात,
किंतु नहीं मैंने छोड़ी थी
आशा-होगा पुनः प्रभात।

काल न ठंडी कर पाया था,
मेरे वक्षस्थल की आग,
तोम तिमिर के प्रति विद्रोही
बन उठता हर एक चिराग़।

मेरे आँगन के अंदर भी,
जल-जलकर प्राणों के दीप,
मुझ से यह कहते रहते थे,
“मां, है प्रातःकाल समीप!”

किंतु प्रतीक्षा करते हारा
एक दिया नन्हा-नादान,
बोला, “मां, जाता मैं लाने
सूरज को धर उसके कान!”

औ’ मेरा वह वातुल, चंचल
मेरा वह नटखट नादान,
मेरे आँगन को कर सूना
हाय, हो गया अंतर्धान।

और, नियति की चाल अनोखी,
आया फिर ऐसा तूफ़ान,
जिसने कर डाला कितने ही
मेरे दीपों का अवसान।

हर बल अपने को बिखराकर,
होता शांत, सभी को ज्ञात,
मंद पवन में ही परिवर्तित
हो जाता हर झंझावात।

औ’, अपने आँगन के दीपों
को फिर आज रही मैं जोड़,
अडिग जिन्होंने रहकर ली थी
भीषण झंझानिल से होड़।

बिछुड़े दीपक फिर मिलते हैं,
मिलकर मोद मनाते हैं,
किसने क्या झेला, क्या भोगा
आपस में बतलाते हैं।

किन्तु नहीं लौटा है अब तक
मेरा वह भोला, अनजान
दीप गया था जो प्राची को
लाने मेरा स्वर्ण विहान।

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