लो आ गया बसन्त
माघ मास जो हिन्दू कैलेंडर में ग्यारहवां महीना है उसके शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को सरस्वती पूजा होती है। इस दिन विद्यार्थी गण मां सरस्वती की पूजा करते हैं। विद्यार्थियों के अतिरिक्त आर्टिस्ट, वादक, संगीतकार जैसे लोग भी सरस्वती देवी की पूजा करते हैं परंतु आम गृहस्थ जनों में सरस्वती आराधना लक्ष्मी पूजा की तरह प्रचलित नहीं है।
सरस्वती पूजा को लेकर जनमानस में लक्ष्मी पूजा की तरह आकर्षण क्यों नहीं है, उदासीनता का भाव क्यों है? क्या है सरस्वती का स्वरूप? ऐसे प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है। शब्दों की बनावट पर विचार करें, तो सरस्वती का अर्थ है सरसता। ऋग्वेद में सरस्वती के विषय में आया श्लोक उनके व्यक्तित्व की सरसता के पक्ष को उजागर करता है:
महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना धियो विश्वा विराजतिः
सरस्वती नदी ने प्रवाहित होकर विशाल जलराशि उत्पन्न की है। साथ ही यज्ञ करने वाले लोगों में उन्होंने ज्ञान भी जगाया है।
ऋग्वेद के 7वें मंडल में सरस्वती का स्वरूप एक वेगवती नदी के रूप में है, जो कि पहाड़ों से बहकर नीचे आती थी, परंतु वर्तमान समय में सरस्वती में वह रसधार नहीं बची है। प्रयाग में त्रिवेणी स्थल पर जहां गंगा और यमुना मिलती है वहां सरस्वती का मिलन सांकेतिक है क्योंकि वे विलुप्तप्राय हो गई हैं। सरस्वती का इस प्रकार लुप्त हो जाना सांकेतिक तौर पर हमारे जीवन में आई नीरसता का परिचायक है। इसलिए यह जानना जरूरी हो गया है कि सरस्वती का वास्तविक स्वरूप क्या है? वह नदी हैं, वाग्शक्ति की देवी हैं, जिनकी कृपा से मूर्ख भी विद्वान बन सकता है अथवा ब्रह्मा की नाराज संगिनी हैं, या फिर विष्णु की वाचाल पत्नी हैं या सृष्टि की आदि शक्ति हैं? सरसता की देवी सरस्वती का चरित्र कई रहस्यों में छुपा हुआ है।
सबसे पहले यह जानते हैं कि देवी सरस्वती का पूजन किसने प्रारंभ किया। देवी भागवत पुराण के अनुसार सबसे पहले सरस्वती पूजा भगवान श्रीकृष्ण ने की थी। देवी भागवत पुराण में प्रसंग है कि जब श्रीकृष्ण की प्राणप्रिया राधा के मुख से सरस्वती प्रकट हुईं तो उन्होंने श्रीकृष्ण को प्रेम भाव से पाना चाहा। परन्तु यह हो नहीं सकता था क्योंकि श्रीकृष्ण के प्राणों पर राधा जी का शासन है। सम्पूर्ण दुनिया पर जिस श्रीकृष्ण का शासन है, वे श्रीकृष्ण राधा जी के वश में हैं। अतः सभी के हित के लिए श्रीकृष्ण ने सोचा कि सरस्वती को अपने अंश भगवान श्रीहरि को समर्पित कर दिया जाए क्योंकि राधाजी के रहते सरस्वती का कल्याण कभी नहीं हो सकता था। राधा जी श्रीकृष्ण के प्राणों की स्वामिनी हैं, अब प्राण के विरुद्ध कोई चाह कर भी नहीं जा सकता है।
इसलिए श्रीकृष्ण ने सरस्वती को नारायण को समर्पित कर दिया एवं साथ ही उनसे कहा, “प्रत्येक माघ पंचमी को विद्या आरम्भ के अवसर पर मनुष्य, देवता, मुनि, योगी सभी मेरे वर के प्रभाव से युगों युगान्तर तक आपकी पूजा करते रहेंगे।” ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने सबसे पहले सरस्वती की पूजा की। और तबसे यह परम्परा शुरू हुई है।
आज के समय में बेशक सरस्वती पूजा को सिर्फ विद्यार्थियों के लिए सीमित कर दिया गया है, मगर जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह परंपरा शुरू की उस समय ऐसा कोई प्रावधान नहीं बनाया। लेखन, पठन-पाठन के साथ सरस्वती का निश्चित तौर पर अधिक लगाव है इसलिए कुछ लोगों ने ऐसा समझ लिया कि सरस्वती पूजा सिर्फ विद्यार्थियों के लिए है। हालांकि वैदिक ऋषि इस सोच के साथ सहमत नहीं थे। ऋग्वेद में यज्ञ में हविष्य देते हुए ऋषि कहते हैं :
पावकाः न सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती, यज्ञं वष्टु धियावसुः
देवी सरस्वती पवित्र करने वाली तथा अन्न एवं धन देने वाली हैं। वे धन साथ लेकर हमारे यज्ञ में आएं।
आगे ॠषि कहते हैं कि वे सरस्वती हमें सत्य बोलने की प्रेरणा देती हैं, और उत्तम बुद्धि वाले लोगों को शिक्षा देती हैं। आगे के श्लोकों में सरस्वती के नदी स्वरूप पर चर्चा हुई है। जानने योग्य बात यह है कि सरस्वती धरती पर कैसे आई?
देवी भागवत पुराण इस विषय में श्रीनारायण और नारद देव के बीच हुए ज्ञान चर्चा में बतलाता है कि भगवान श्रीविष्णु की तीन पत्नियां थीं- लक्ष्मी, सरस्वती ( जिसे श्रीकृष्ण ने राधा के भय से अपने विष्णु स्वरूप को सौंप दिया था) और गंगा। एक बार गंगा और भगवान विष्णु के बीच प्रेमपूर्ण हाव-भाव का आदान-प्रदान हुआ। उसे देख कर सरस्वती की ईर्ष्या बलवती हो गई।
उनकी असुरक्षा ने उन्हें इतना भयभीत कर दिया कि वह विष्णु भगवान से रूठ गईं। भगवान विष्णु महल से बाहर निकलकर दुनिया के कामकाज संभालने चले गए और उनके पीछे देवी सरस्वती का गंगा के साथ भयंकर युद्ध हो गया। देवी लक्ष्मी बीच-बचाव करने आईं तो सरस्वती ने उन्हें धरती पर पौधा बन जाने का शाप दे दिया, जिसे स्वीकार कर उन्हें तुलसी का रूप धारण करना पड़ा। सरस्वती के क्रोध को देखकर गंगा ने उन्हें शाप दिया कि वह पृथ्वी पर नदी बन जाएं और पृथ्वी वासियों के पाप का हरण करें। सरस्वती कहां शांत रहने वाली थी, गंगा के शाप को सुनकर उन्होंने उसे शाप दिया कि उन्हें भी पृथ्वी पर आकर धरती वासियों के पाप को स्वीकार करना पड़ेगा जिसके प्रभाव वश कालांतर में राजा भगीरथ ने तपस्या के द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाया जिस कारण गंगा भागीरथी भी कही जाती है।
आपसी कलह जो सरस्वती की असुरक्षा से शुरू हुआ उसका परिणाम हुआ कि भगवान विष्णु की तीनों पत्नियों – गंगा, सरस्वती एवं लक्ष्मी को पृथ्वी पर आना पड़ा। परन्तु कथा यहीं पर समाप्त नहीं होती है। भगवान विष्णु जब संसार के जरूरी काम-काज निपटा कर सभासदों के साथ वार्ता करके लौटे, तब अपने घर में हुए कलह से परेशान हो गए।
इस प्रसंग से भगवान विष्णु ने इतना तो समझ ही लिया कि विभिन्न स्वाभाव वाली तीन स्त्रियां, तीन दोस्त एवं तीन नौकरों का एक जगह रहना वेद के विरुद्ध है। इसलिए उन्होंने सरस्वती को ब्रह्मा को और गंगा को शिव को सौंप दिया एवं स्वयं अनुकूल स्वाभाव वाली लक्ष्मी के साथ रहने लगे। शायद इस आपसी गृह युद्ध के कारण कालांतर में लोगों ने यह मान लिया कि लक्ष्मी एवं सरस्वती एक साथ नहीं रह सकती हैं, पर यह सोच भटकी हुई है।
ब्रह्मा के साथ भी सरस्वती की अनबन हो गई। कहानी है कि ब्रह्माजी पुष्कर में संसार के कल्याण के लिए एक अति महत्वपूर्ण यज्ञ कर रहे थे। यज्ञ में पति-पत्नी को एक साथ बैठना होता है, पर सरस्वती यज्ञ के लिए देर से आई। मुहुर्त बीता जा रहा था और ब्रह्माजी ने गायत्री से विवाह करके उसके साथ यज्ञ संपन्न किया। क्रुद्ध होकर सरस्वती ने ब्रह्माजी को शाप दे दिया कि आज से आपकी पूजा कहीं नहीं होगी, सिवाय उस एक मंदिर के जहां आप स्थित हैं। इन कहानियों में कितनी कल्पना और कितना सत्य कार्य कर रहा है, यह मालूम नहीं परंतु ‘सरस्वती’ आज एक हाशिए पर सिमट गई हैं।
कहा जाता है कि शब्द पर ध्यान दिया जाए तो अर्थ स्वयं स्पष्ट हो जाता है। सरस+वती = सरसता से युक्त सरस्वती वीणा लेकर कभी विष्णु, कभी ब्रह्माजी के पास जा रही हैं। श्रीकृष्ण उनसे सहमे हुए हैं, विष्णु तनावपूर्ण सुलह करके लक्ष्मी बचाते हैं और ब्रह्मा तो शापाग्नि में जल ही जाते हैं। आज भी जले हुए हैं!
कहने को ब्रह्माजी त्रिदेवों में एक हैं परंतु उनकी पूजा पुष्कर के अतिरिक्त और कहीं नहीं होती है।
इन पौराणिक कहानियों से यह सिद्ध हो जाता है कि सरस्वती प्रकृति है और बसंत पंचमी पर होने वाली सरस्वती पूजा जोर-शोर से वसंत के आगमन की, नए के आरंभ की घोषणा करता है।
वैसे इन कहानियों में विदुषी सरस्वती की सोच, उनकी वाणी की प्रखरता उनके विरुद्ध प्रतीत होती है पर ऐसा नहीं है क्योंकि सरस्वती पुरुष प्रधान समाज की रुढ़ियों के विरुद्ध है। अपने जीवन में रस वह स्वयं अध्ययन जप और संगीत के माध्यमों में खोज लेते हैं और अपने साधक को प्रखर वाक, खरी सोच एवं आत्मचिन्तन का आशीष दे देती हैं। रविन्द्र नाथ टेगोर का वह बंगला गीत एकला चलो रे को प्रत्येक क्षण जीवंत और सार्थक करती है सरस्वती!