November 21, 2024

सामयिकी @ डॉ. दीपक पाचपोर

हर शनिवार

लोकतंत्र को खोखला कर देगा पक्षपाती केन्द्रीय चुनाव आयोग

   -डॉ. दीपक पाचपोर

जो लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था के मर्म को नहीं समझते वे अक्सर संसद, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, प्रशासन या नौकरशाही को ही नियामक समझते हैं और मानते हैं कि इनके कारण ही यह व्यवस्था चल रही है। सच तो यह है कि इस प्रणाली की असली ताकत कार्यपालिका को निरंकुशता व स्वेच्छाचारिता से बचाने के लिये गठित एजेंसियों एवं स्वायत्त संस्थाओं में निहित हैं। उनका काम इस व्यवस्था को पटरी पर बनाये रखना है।

आजादी के बाद, कुछेक वर्षों को छोड़ दें तो ज्यादातर सरकारों व राजनैतिक दलों ने इस संस्थाओं की स्वायत्तता का पर्याप्त सम्मान किया है और उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक काम करने दिया है। हाल का दौर दूसरा है। पिछले 6-7 वर्षों में शासक एवं सत्तारुढ़ दल इन पर हावी हैं जिसके कारण उन एजेंसियों व संस्थाओं की शक्ति घटी है। ऐसा करना देश को ऐसे गंभीर परिणामों की ओर ले जा सकता है जिससे हमारा समग्र लोकतंत्र ही खतरे में आ सकता है। यह हम सभी के सोचने का समय है कि कैसे इन संस्थाओं की स्वायत्तता बहाल हो ताकि हमारा लोकतंत्र अक्षुण्ण रहे।

आजादी के बाद जब देश के निर्माताओं ने संविधान बनाया तो वे एक ऐसी लोकतांत्रिक प्रणाली बनाने के लिये कटिबद्ध थे जिसमें एक जीवन्त एवं समावेशी लोकतांत्रिक व्यवस्था बनी रह सके। समानता के आधार पर बनाई गयी किसी भी प्रणाली के लिये यह आवश्यक होता है कि उसकी सारी इकाइयां न केवल पर्याप्त शक्तिशाली हों बल्कि वे निष्पक्ष एवं स्वायत्त भी रहें। संविधान निर्माता जानते थे कि जनतंत्र की असली ताकत राष्ट्राध्यक्ष या संसद नहीं वरन वे स्वतंत्र एजेंसियां हैं जो इन पर अंकुश रखने का काम करती हैं। अगर ये सरकारों के अधीन रहीं एवं अपने सारे काम सत्ता के इशारे पर करेंगी तो कोई भी काम निष्पक्ष नहीं हो सकेगा। बहुदलीय व्यवस्था का सिद्धांत अपनाने पर उनके बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिये मुक्त वातावरण उपलब्ध कराना भी आवश्यक है, वरना समानता का सिद्धांत कोई काम का ही नहीं रह जायेगा। किसी भी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में वे सारी स्वतंत्र एजेंसियां एवं आयोग मिलकर यही देखती हैं कि सभी दलों के साथ एक जैसा व्यवहार हो एवं सभी को एक ही नियम के अनुसार न्याय मिले। केन्द्रीय जांच एजेंसिया एवं आयोग सरकार की विरोधी विचारधारा वाले व्यक्तियों एवं संगठनों को सुरक्षा एवं न्याय दिलाने का काम करती हैं। उनका समदर्शी होना ही उनका उद्देश्य है। फिर वे चाहे सूचना आयोग हों अथवा जांच एजेंसियां (सीबीआई, ईडी आदि) या फिर चुनाव आयोग।

इनमें चुनाव आयोग की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योकि किसी भी सरकार का गठन चुनावी नतीजों पर ही आधारित होता है। ऐसे में चुनाव आयोग को न केवल निष्पक्ष होना होता है बल्कि उसे निष्पक्ष दिखना और खुद को साबित करना भी होता है। वह हर तरह के दबावों एवं प्रभावों से मुक्त होना चाहिये- यहां तक कि सत्ता के भी। अगर वह सत्तारुढ़ दलों के इशारों पर काम करने लगेगा तो चुनाव निष्पक्ष नहीं हो सकते और इससे लोगों द्वारा चाहे गये उम्मीदवारों या दलों को मतदान के जरिये विधायिकाओं में पहुंचना मुश्किल हो जायेगा। पक्षपातपूर्ण तरीके से सरकार बनने का अर्थ है गण की इच्छा के विपरित काम करना जिसकी इजाज़त लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में नहीं है।

पिछले कुछ वर्षों से चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लगे हैं। अब तो यह स्पष्ट हो चला है कि चुनाव आयोग का झुकाव भारतीय जनता पार्टी एवं उसकी केन्द्र या राज्य सरकारों के प्रति है। इस दल के इशारे एवं उसकी सुविधा पर चुनाव के कार्यक्रम तक तय होने लगे हैं। कई बार तो पीएम मोदी एवं गृह मंत्री अमित शाह की सभाएं खत्म होने के बाद चुनाव कार्यक्रम घोषित किये गये हैं। कभी इन लोगों या भाजपा के प्रचारकों व प्रत्याशियों द्वारा शहीदों एवं सेना के पराक्रम के नाम पर वोट मांगे गये तो कभी जाति-पांति या सम्प्रदायों के आधार पर।

इस वर्ष के फरवरी-मार्च में पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं लेकिन अनेक कारणों से उत्तर प्रदेश के चुनाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं। 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिहाज से भी भाजपा हर हाल में यह चुनाव जीतना चाहती है परन्तु वहां की बिगड़ी कानून-व्यवस्था, महिलाओं के खिलाफ अपराधों की बहुलता, कोरोना का कुप्रबंधन, शून्य विकास, किसान आंदोलन, सपा की मजबूती आदि जैसे अनेक कारणों से उसकी हालत खस्ता है। खासकर पश्चिमी व पूर्वी उत्तर प्रदेश में उसकी करारी हार तय मानी जा रही है। ऐसे में केन्द्र के इशारे पर भाजपा की मदद चुनाव आयोग करता दिख रहा है। कोविड संक्रमण के कारण अभी 31 तारीख तक वर्चुअल रैलियों की ही अनुमति है परन्तु शाह मुजफ्फरपुर एवं उससे पहले कैराना में कोरोना नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए प्रचार करते दिखे। अभी उत्तर प्रदेश में एक सभा करने के लिये पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव पर एफआईआर की गयी थी। इस सभा में भाजपा को छोड़कर सपा में आये स्वामी प्रसाद मौर्य भी थे, जो भाजपा की बौखलाहट का सम्भावित कारण था। अगर अखिलेश के खिलाफ एक तरह के अपराध के लिये मामला दर्ज किया गया है तो उसी तरह के नियम विरूद्ध कार्य हेतु शाह पर क्यों नहीं किया गया- यह तो पूछा ही जायेगा। अगर आयोग ऐसा नहीं करता तो माना ही जायेगा कि वह सरकार के प्रभाव में काम कर रहा है।

मनाही के बाद भी उप्र में साम्प्रदायिक एवं जातीय ध्रुवीकरण के आधार पर मतदाताओं को रिझाया जा रहा है। वहां के सीएम योगी आदित्यनाथ ने पहले तो उप्र के चुनावों को 80 बनाम 20 का संघर्ष बताया। यानी हिन्दू एवं मुसलियों के बीच उन्होंने विभाजन रेखा खींच दी। वे यहीं तक नहीं रुके वरन उन्होंने कैराना में ही यह कहकर हिन्दू-मुसलिमों के बीच वोट मांगे कि वहां मुसलिम माफियाओं के कारण पलायन हुआ था जबकि अब यह साबित हो चुका है कि ऐसा बिलकुल नहीं था। इस चुनाव में यह भी कहा जा रहा है कि सपा जिन्ना की समर्थक है। विपक्षी दलों को पाकिस्तानपरस्त बतलाकर धर्म आधारित बयानों के जरिये प्रचार बदस्तूर जारी है। पहले भी भाजपा एवं मोदी-शाह द्वारा पाकिस्तान में सेना की सर्जिकल स्ट्राईक एवं पुलवामा के नाम से वोट मांगे गये थे। 2019 के चुनावों में मोदी बाकायदे भाजपा का चुनाव चिन्ह लेकर मतदान केन्द्र में गये थे जिसकी ओर संकेत कर उन्होंने चलते मतदान के बीच वोट पाने की कोशिश की थी। पश्चिम बंगाल में भी चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन होता रहा परन्तु चुनाव आयोग ने एकतरफा कार्रवाई की। बिहार में पोस्टल बैलेट्स की गिनती परम्परा के विरूद्ध बाद में की गयी थी। आरोप है कि थोड़े मतों से हार रहे कई भाजपा व जेडीयू के उम्मीदवारों को जिताया गया था। ईवीएम को लेकर संशय अब भी बना हुआ है। कभी बूथ कैप्चरिंग, फर्जी मतदान आदि आम थे जिसे पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त टीएन शेषन ने समाप्त कर आयोग की साख व प्रतिष्ठा लौटाई थी। अब वह फिर से धूमिल हो गयी है। इन तरीकों से चुनाव जीतकर किसी एक पार्टी के समर्थक चाहे खुश हों लें पर अगर यह परम्परा बन गयी तो आने वाली सरकारें भी आयोग का अपने फायदे में उपयोग करेंगी। ऐसे में लोकतंत्र के कमजोर होने का एक बड़ा जिम्मेदार केंचुआ को भी माना जायेगा। जैविक केंचुआ तो भूमि को ऊर्वरक बनाता है, परन्तु यह केंचुआ हमारे लोकतंत्र की जमीन को एकदम बंजर बना देगा जहां हमारा जनतंत्र पनप नहीं पायेगा।

डॉ. दीपक पाचपोर, सम्पर्क- 098930 28383

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