पंडित दीनदयाल उपाध्याय: पुण्यतिथि पर विहंगावलोकन
नईदिल्ली 11 फरवरी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक हिंदुत्व वादी विचारक और भारतीय राजनितिज्ञ थे। उन्होंने हिन्दू शब्द को धर्म के तौर पर नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति के रूप में परिभाषित किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संंघ, यानि आर एस एस से भी जुड़े रहे। इसी के साथ भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने राजनीति के अलावा भारतीय साहित्य में भी योगदान दिया। उनके द्वारा सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य व चाणक्य पर आधारित नाटक ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’ बहुत पसंद किया गया।
पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की मदद से भारतीय जन संघ की स्थापना की थी जो बाद में चलकर आज की भारतीय जनता पार्टी के नाम से जानी जाती है। इस दौरान ये भारतीय राजनीति में अहम किरदार निभाते रहे। उन्होंने ‘एकात्म मानववाद’ के आधार पर भारत राष्ट्र की कल्पना की थी जिसमें विभिन्न राज्य की संस्कृतियां आपस में मिलकर एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण करें।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन परिचय
25 सितंबर, 1916 को उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में जन्में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय भारतीय रेलवे विभाग में नौकरी किया करते थे। इनकी माता रामप्यारी गृहिणी के रूप में परिवार का देखभाल करती थी।पंडित दीनदयाल के माता-पिता बहुत धार्मिक प्रवृत्ती के थे। रेलवे में नौकरी के चलते उन्हें अक्सर घर से बाहर ही रहना पड़ता था। जब कभी छुट्टी मिलती तो वो घर आते थे। इसके बावजूद इनकी माता ने बच्चों का बेहतर पालन-पोषण किया था।
पंडित दीनदयाल के छोटे भाई का नाम शिवदयाल था। इनके पिता ने पत्नी व बच्चों को मायके भेज दिया। दीनदयाल के नाना भी रेलवे विभाग में स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे। दीन दयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ पले बढ़े। महज 3 साल की उम्र में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के पिता का देहांत हो गया। पिता की मौत के बाद इनकी माता को भी गहरा धक्का लगा, जिसकी वजह से वो भी बीमार रहने लगीं। बीमारी के चलते ही सात साल की छोटी उम्र में ही दीनदयाल के सिर से माता का साया भी उठ गया।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का राजनीतिक सफर
बचपन में ही जीवन के कड़वे अनुभव झेल चुके दीन दयाल उपाध्याय ने भारतीय राजनीति में कदम रखा। वह श्यामा प्रसाद मुखर्जी के करीबियो में से थे। वर्ष 1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन के बाद भारतीय जन संघ की जिम्मेदारियां पंडित जी के कंधे पर आ गई। करीब 15 वर्षों तक संगठन के महामंत्री के तौर पर अपनी सेवाएं देने के बाद दिसंबर, 1967 में इन्हें पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया।
इसके बाद वो हादसा इनके साथ घटित हुआ जिससे ना दीनदयाल उपाध्याय के परिवार को बल्कि देश को भी गहरा सदमा लगा। 11 फरवरी 1968 को रेल यात्रा के दौरान पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत की खबर ने पूरे देश को हिला दिया। उनकी रहस्यमयी मौत ने लोगों के मन में कई सवाल खड़े कर दिए। क्योंकि इनका मृत शरीर मुग़ल सराय रेलवे स्टेशन की लाइनों के पास मिला था जो काफी हैरान करने वाली बात थी। पंडित दीनदयाल की मृत्यु कैसे हुई ये आज भी एक रहस्य बना हुआ है।
पंडित दीनदयाल की मौत से पहले का पूरा घटनाक्रम
10 फरवरी की सुबह आठ बजे लता खन्ना के घर फोन आया। फोन के दूसरी तरफ थे बिहार जनसंघ के संगठन मंत्री अश्विनी कुमार। कुमार ने उपाध्याय से बिहार प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने का आग्रह किया। दिल्ली में सुंदर सिंह भंडारी से बात करने के बाद उन्होंने बिहार जाने का निर्णय लिया। आनन-फानन में पटना जाने के लिए पठानकोट-स्यालदाह एक्सप्रेस के प्रथम श्रेणी में आरक्षण करवाया गया। टिकट का नंबर था 04348। ट्रेन की प्रथम श्रेणी की बोगी के ‘ए’ कम्पार्टमेंट में उनको सीट मिल गई। शाम के 7 बजे, पठानकोट-स्यालदाह लखनऊ पहुंची। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्त उन्हें स्टेशन तक छोड़ने आए थे। इसके अलावा उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य पीताम्बर दास भी वहां मौजूद थे।
उनके साथ बोगी के कम्पार्टमेंट में एक और सीट जिओग्राफ़िकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के एमपी सिंह के लिए आरक्षित थी, वो अपनी ट्रेनिंग के सिलसिले में पटना जा रहे थे। इस बोगी के कम्पार्टमेंट ‘बी’ में एक और सवारी लखनऊ से सवार हुई। ये सज्जन थे उत्तर प्रदेश विधान परिषद में कांग्रेस के सदस्य गौरी शंकर राय। ट्रेन चलने के कुछ ही समय बाद पंडित जी ने अपनी सीट गौरी शंकर राय के साथ बदल ली।
ट्रेन बाराबंकी, फैजाबाद, अकबरपुर और शाहगंज से होते हुए जौनपुर पहुंची। उस समय रात ठीक 12 बजे थे। यहां उनकी मुलाकात जौनपुर के महाराज के कर्मचारी कन्हैया से हुई। कन्हैया महाराज की तरफ से एक खत लेकर आया था। खत लेने के साथ ही उन्हें याद आया कि वो अपना चश्मा कम्पार्टमेंट के भीतर ही भूल गए हैं, वो कन्हैया को लेकर कम्पार्टमेंट के भीतर आ गए। उन्होंने खत पढ़ने के बाद कन्हैया से कहा कि जल्द ही वो महाराजा को खत के सिलसिले में जवाब भेज देंगे। इस बीच ट्रेन ने चलने की सीटी दे दी। उस समय प्लेटफार्म पर टंगी घड़ी में 12 बजकर 12 मिनट हो रहे थे।
यहां से चलकर गाड़ी बनारस पहुंची और फिर 2 बजकर 15 मिनट पर मुग़लसराय जंक्शन के प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर आकर रुकी। यह गाड़ी पटना नहीं जाती थी। इसलिए इस डिब्बे को दिल्ली-हावड़ा एक्सप्रेस से जोड़ दिया जाना था। इस शंटिंग की प्रक्रिया में आधे घंटे का समय लग जाना था। टाइम टेबल के मुताबिक इस गाड़ी का यहां से चलने का समय 2 बजकर 50 मिनट मुकर्रर था। यहां से चलकर गाड़ी को सुबह 6 बजे पटना जंक्शन पहुंचना था। गाड़ी जब पटना पहुंची तो वहां पंडित जी की अगवानी करने के लिए कैलाशपति मिश्र स्टेशन पर मौजूद थे। उन्होंने पूरी बोगी छान मारी लेकिन पंडित जी वहां नहीं थे। कैलाशपति ने सोचा कि शायद पंडित जी पटना आने के बजाय दिल्ली चले गए और वो वापस घर लौट गए।
इधर, मुग़लसराय स्टेशन के यार्ड में लाइन से करीब 150 गज दूर एक बिजली के खंबे संख्या 1267 से करीब तीन फुट की दूरी पर एक लाश पड़ी थी। चूंकि आगे की कार्रवाई पुलिस की थी, लिहाजा रेलवे पुलिस को इस बारे में बता दिया गया। राम प्रसाद और अब्दुल गफूर नाम के दो सिपाही 15 मिनट बाद करीब 3 बजकर 45 मिनट पर वारदात की जगह पर पहुंचे। इनके पीछे-पीछे पहुंचे फतेहबहादुर सिंह, जो उस समय रेलवे पुलिस के दरोगा हुआ करते थे।
इसके बाद रेलवे डॉक्टर को शव का मुआयना करने के लिए बुलाया गया। डॉक्टर सुबह 6 बजे के बाद पहुंचा, ठीक उस समय जब कैलाशपति मिश्र पटना जंक्शन से बैरंग अपने घर लौट रहे थे। डॉक्टर ने शव का मुआयना करके उसे अधिकारिक तौर पर मृत घोषित कर दिया। रजिस्टर में यहां इस पूरी कार्रवाई को दर्ज किया जा रहा था। वहां समय के कॉलम में भरा गया था 5 बजकर 55 मिनट बाद में इसे काटकर 3 बजकर 55 मिनट कर दिया गया।
शव की जांच के बाद उसे धोती से ढक दिया गया। सुबह समय बीतने के साथ-साथ लोग लाश के आसपास जुटने लगे। इसी स्टेशन पर बनमाली भट्टाचार्य भी काम किया करते थे। वो दीनदयाल उपाध्याय को पहले से जानते थे। उन्होंने शव को देख पुलिस को इनके दीनदयाल होने की बात कही, लेकिन पुलिस नहीं मानी। भट्टाचार्य बाबू ने इसकी सूचना स्थानीय जनसंघ कार्यकर्ताओं को दी। इसके बाद टिकट के नंबर का मिलान करके मृतक को दीनदयाल उपाध्याय के रूप में पहचाना जा सका।