कि उठ गयी नदी में सोती मछलियां@ विजय सिंह
यह कविता सूरज यश के साथ सभी बच्चों के
लिए जिनसे मैं प्यार करता हूँ
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कि उठ गयी नदी में सोती मछलियां
यह तस्वीर दो- तीन साल पुरानी है और यह कविता उससे भी अधिक पुरानी … जब सूरज और यश को सुबह – सुबह स्कूल भेजने की हड़बड़ी होती थी.. सरिता किचन में उनके लिए टिफिन ,पानी बोतल आदि तैयार करने लगीं रहती थी मैं उनका बस्ता समेटते हुए उनके कापी पुस्तक ,पेन्सिल रबर आदि सलीके से रखते हुए उन्हें बार – बार नींद से जगाने में लगा रहता था!
तब माँ भी थी और बाबा भी, बाबा बार – बार मुझसे कहते सोने दो अभी समय नहीं हुआ है….. कई बार तो बाबा मुझसे नाराज़ हो जाया करते थे…. और मैं हूँ कि उन्हें जगाने में लगा रहता था… और उसी समय इस कविता का भी जन्म हुआ था…. लेकिन अब कितना कुछ बदल गया ना….. सूरज तो पहले ही बड़ा हो गया था अब यश, अचानक बड़ा हो गया.. पहले मुझे छोड़ता नहीं था ,जहाँ जाऊँ मेरे साथ चिपका रहता था… अब तो उसके दोस्त बन गये हैं …दोस्त, उसकी दुनिया में आ गये हैं … अद्भुत और जीवंत है न बच्चों की दुनिया …जैसी भी है ,लेकिन हमसे बहुत अच्छी है बच्चों की दुनिया …. मैं बच्चों से अगाध प्रेम करता हूँ ..सूरज – यश की तरह मेरे बहुत से बच्चे दोस्त हैं.. उनकी दुनिया यदि कोई उजाड़ता है…. तो वह मेरे सबसे बड़े दुश्मन .. मैं उन्हें कभी माफ नहीं कर सकता…. बच्चों को बड़ा होना ही है लेकिन मैं जानता हूँ बच्चों की दुनिया कभी छोटी नहीं होगी……
कि उठ गयी नदी में सोती मछलियां
उठो, सूरज ! उठो यश
उठो – उठो कि सुबह के सूरज ने
धरती में अपना चटख रंग बिखेर दिया है
कि उठ गया पंख फड़फड़ाता, खप्पर में
बांग देता मुर्गा
कि उठ गयी दूब में खिली ओस की नन्हीं बूंदें
कि उठ गयी छानी में पसरी उजली धूप
कि उठ गये बाड़ी में खिले किसम – किसम के पेड़ – पौधे
कि उठ गयी रात भर सोती धूल उड़ाती पगडंडी
कि उठ गये खांसते बाबा
कि उठ गयी कहानी सुनाती दादी
कि उठ गये खेत जाते किसान
उठो सूरज, उठो यश
कि उठ गये खेत में पकते अनाज
कि उठ गये आसमान में उड़ते पंछी
कि उठ गयी नदी में सोती मछलियां
कि उठ गया हरा – भरा जंगल
उठो – उठो
कि उठ गया तुम्हारा बस्ता
कि उठ गया कलम
कि उठ गये तुम्हारे कापी – पुस्तक
कि उठ गया टिफिन का खाली डिब्बा
उठो सूरज, उठो यश
कि पढ़ने का समय हो गया है
उठो- उठो
कि उठ गये हैं
कापी में लिखे
तुम्हारे सुंदर – सुंदर अक्षर !