कविताएं @ नारायण सिंह निर्दोष
प्रस्तुति- विजय सिंह
नदी : चार कविताएँ
नदी-1
नदी
क्या आवश्यक है
बहते ही रहना
हर पल!
संबंधों के इस रेत में
आओ
बैठें कुछ देर
सटाकर/एक दूजे की
पीठ से पीठ।
तदोपरांत
देह में समेटे स्फूर्ति
लौट जाऊँगा मैं
अपने काम पर
और तुम
चाहो तो/पुनः बहते रहना।
नदी-2
नदी
कलाबाजी करता है
तुम्हारे भीतर
मगरमच्छ
तब मैं होता हूँ!
मैं होता हूँ
ले रहा तुममें पनाह
जब दौड़तीं हैं/तुम्हारे भीतर
अपनी जान बचातीं
नन्हीं मछलियाँ।
मैं पल में उतर जाता हूँ
उस पार
चलते हैं चापू
जब तुम्हारी देह पर।
नदी
जब तुम सूखती हो
तब तुम्हारे किनारे बैठा
मैं
तुम्हारे लौट आने की
कामना करता हूँ।
नदी-3
नदी
निरंतर बहती हुई
चुपचाप!
नदी
तुमसे होकर गुजरते हुए
तुम्हारे पुल के दो सिरों के बीच
मन कहीं खो जाता है;
यकायक
यह क्या हो जाता है
कि हर बार
शेष बचता है तुम्हारी
लहरों को न छू पाने का
मलाल
निगाह भर।
नदी
तुम बेशक रखती होगी
हिसाब
कि मर्तबा कितनी
निकला हूँ
मैं तुम्हें लाँघकर।
नदी-4
मैं होता हूँ
पानी होता है नदी में,
नदी में
यदि नहीं होती, तो
वह होती है नदी।
अपने तटों के
निरंतर कटाव से पीड़ित
अपने ही तट पर
गुमसुम बैठी
वह नाप रही होती है मुझमें
कौतूहल;
मेरी रगों में दौड़ता- अपौरुष
और यह कि मैं
कितनी आसानी से हो सकता हूँ
निर्वस्त्र।
दफ्तर से/जुआघर से/बाज़ार से
अवैध प्यार से
मिले तनाव
या फिर
यकायक मिली ख़ुशी का गट्ठर लादे
लौटना
और फिर कूद पड़ना नदी में;
लहरों से हब्सियों-सा लड़ना
और लड़ते जाना,
चले जाना फिर दिखाकर
पीठ नदी को
यही तो होता आया है
सदियों से
मैं क्षमा प्रार्थी हूँ नदियों से।
आगरा, उत्तरप्रदेश